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स्वास्थ्य व शिक्षा में क्रांति की दरकार

30.07.2021,Hamari Choupal

{गुरबचन जगत}

भारत में कोविड-19 का कहर शुरू हुए एक साल से ज्यादा हो गया। पहली लहर बनिस्पत कम घातक रही, जिसके चलते मुगालते में आकर हम कहने लगे कि सब ठीक हो गया है। यहां तक कि हम वह वैक्सीन भी निर्यात करने लगे, जो उपलब्ध थी। फिर आई दूसरी खतरनाक लहर और हमें संभलने का मौका तक नहीं मिला। स्वास्थ्य ढांचा नाममात्र का निकला-अस्पताल, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, मेडिकल स्टाफ इत्यादि की बेतरह कमी। लाखों लोग मारे गए और लाखों-लाख संक्रमित हो बीमार पड़े, इनकी ठीक संख्या का भी पूरी तरह पता नहीं है। विश्व हमारी मदद को आया, लेकिन उतना नहीं, जितनी जरूरत थी। अब हमें इंतज़ार है तीसरी लहर का और प्रार्थना कर रहे हैं कि काश न आए।

लेकिन यह इस लेख का उद्देश्य नहीं है। तथ्यों को आंकड़ों की हेराफेरी से छिपाया नहीं जा सकता। कोविड सचमुच में व्याप्त है, लाखों जानें लील गया और हमारी तैयारियां कहीं आसपास भी नहीं थीं। ऐसा क्यों हुआ? इसके लिए हम ब्रितानी हुकूमत को दोष नहीं दे सकते क्योंकि आजाद हुए 73 बरस हो गए। यह समय काफी है एक प्रथम श्रेणी का स्वास्थ्य तंत्र बनाने को। तथापि आजादी के दिन से किसी भी सरकार ने दो क्षेत्रों-स्वास्थ्य और शिक्षा-को तरजीह देकर विकसित करने की ओर ध्यान नहीं दिया। यदि पिछले सालों में इनके लिए रखे गए बजटीय प्रावधानों को देखें तो आपको पता चल जाएगा कि समस्या की जड़ कहां है। होना तो यह चाहिए था कि जिला, प्रखंड और राज्य मुख्यालय स्तर पर मॉडल अस्पताल होते। आलीशान भवन बनाने पर जोर देने की बजाय पैसा पर्याप्त संख्या में डॉक्टर, नर्स और सर्वोत्कृष्ट उपकरण जुटाने पर लगाया जाता। कुछ गांवों के समूह के पीछे एक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केंद्र होना चाहिए, जहां छोटी-मोटी स्वास्थ्य समस्याओं का निवारण स्थानीय स्तर पर हो सकता और जरूरत पडऩे पर ही रोगी को उच्च स्तर के अस्पतालों में रेफर किया जाता।

इसके साथ जरूरत थी नर्सें तैयार करने को यथेष्ठ संख्या में मेडिकल और प्रशिक्षण कॉलेजों की। इनकी गिनती अस्पतालों की संख्या के आधार पर हो सकती थी। पर्याप्त संख्या में सामान्य और विशेषज्ञ चिकित्सक भर्ती कर उनकी नियुक्ति अस्पतालों में बराबर संख्या में होती। ग्रामीण डिस्पेंसरियों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि अधिकांश बिना डॉक्टर के चल रही हैं, क्योंकि वे सुविधाओं के अभाव में ग्रामीण अंचल में जाकर काम करने से कतराते हैं।

इन सबसे ऊपर है, सत्ता के शीर्ष पर एक राजनीतिक दूरदृष्टा होने की जरूरत, जिसे इल्म हो कि स्वास्थ्य और शिक्षा, मानव विकास हेतु सबसे मूलभूत अवयव हैं, जिनके ऊपर देश का समग्र विकास निर्भर करता है। लेकिन 1947 से ही इस ओर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। अपने लंबे सरकारी सेवाकाल के दौरान मैंने ऐसे स्वास्थ्य मंत्रियों और सचिवों को देखा है, जिनका लगभग पूरा समय स्थानांतरण और नियुक्तियां करने में निकल जाता था। दबाव इतना कि नीतिगत मामलों के लिए समय नहीं बचता। इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद हम लोग एक नीति तक विकसित नहीं कर पाए और ‘लॉबी के भीतर लॉबीÓ सारा गोरखधंधा चलाए हुए हैं। इस तरह की स्थिति में भ्रष्टाचार फलता-फूलता है, दवाओं एवं उपकरणों की खरीद से लेकर ओहदे और स्थानांतरण तक में। नतीजा यह कि हमारे नामी मेडिकल प्रशिक्षण एवं अनुसंधान प्रतिष्ठान जैसे कि पीजीआई, एम्स इत्यादि को चारों ओर से आने वाले मरीजों की सुनामी झेलनी पड़ती है, क्योंकि निचले स्तर पर व्यवस्था सही ढंग से काम नहीं करती। लिहाजा, उपचार जगत में उत्कृष्टता पाने के उद्देश्य से बने इन संस्थानों को अपनी पढ़ाई एवं अनुसंधान की एवज़ पर हर रोज़ हज़ारों बाह्य रोगियों से निपटना पड़ता है।

हमारे नेता और शिक्षाविद् सदा उच्च शिक्षा संस्थान बनाने की बात तो करते हैं, लेकिन इनके लिए जरूरी विद्यार्थी आएंगे कहां से? हमारे प्राथमिक विद्यालय तो ज्यादातर कागज़ों में चल रहे हैं। इनमें न समुचित भवन, न ही शौचालय (विशेषकर लड़कियों के लिए) इत्यादि की व्यवस्था है। प्रशिक्षित अध्यापक भी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं। जो हैं, उन्हें बौद्धिकता अथवा अध्यापन अथवा नैतिक व्यवहार का उदाहरण नहीं कहा जा सकता। इनकी यूनियनें बहुत ताकतवर हैं और कोई बड़ा बदलाव नहीं होने देतीं। यहां भी, बहुत सारा समय मनपसंद नियुक्ति और स्थानांतरण करने-करवाने में चला जाता है।

शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी तंत्र नदारद है – समुचित संख्या में स्कूल, कॉलेज, प्रयोगशालाएं नहीं हैं। हमें राष्ट्रीय स्तर के ऐसे संस्थान बनाने चाहिए थे, जिनका उद्देश्य बच्चों में नये विचार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने का होता। हर साल इतिहास, राजनीति शास्त्र इत्यादि में पैदा हुए लाखों स्नातकों का समाजोन्मुख उपयोग बहुत कम है। हमें ऐसे विद्यार्थियों की जरूरत है, जो शुरू से ही रचनात्मक सोच रखें और विश्वविद्यालय पहुंचते-पहुंचते नये अनुसंधान करें। कॉलेजों में कला संकाय के विद्यार्थियों की संख्या में भारी कमी लाने की जरूरत है और युवा लड़के-लड़कियों को अन्य ऐसे कौशल सिखाए जाएं, जिनसे उनको उद्योग-धंधों में रोजगार मिल सके। इसके लिए उद्योगों की भावी जरूरतों को ध्यान में रखकर शिक्षण को उस मुताबिक ढाला जाए।

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