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साझे प्रयासों में ही है समाधान

01.07.2021,Hamari Choupal

{अनूप भटनागर}

‘लव जिहादÓ की कथित घटनाओं के बहाने भाजपा शासित राज्यों में बनाये जा रहे धर्मांतरण निरोधक कानून की तर्ज पर ही अब असम के बाद उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य भाजपा शासित राज्य भी दो से ज्यादा संतान वाले व्यक्तियों को सरकारी नौकरी जैसी सुविधा से वंचित करने जैसे कदम उठाने की तैयारी कर रहे हैं। इसका मकसद जनसंख्या पर नियंत्रण के लिये जनता को प्रेरित करना है ताकि प्राकृतिक संसाधनों और सरकारी योजनाओं का लाभ समाज के सभी वर्गों को यथासंभव समान रूप से मिल सके। लेकिन सरकारों के प्रयासों पर राजनीति शुरू हो गयी है। जनसंख्या नियंत्रण के किसी भी प्रयास को सांप्रदायिक रंग देना राजनीतिक दिवालियापन और संकीर्ण सोच दर्शाता है।
कोरोना संकट के दौरान सभी ने तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के दुष्परिणामों को महसूस किया है। राज्यों में चिकित्सा सुविधाओं, अस्पतालों का अभाव, ऑक्सीजन और दवाओं के भारी संकट की वजह से लोगों ने प्रियजनों को दम तोड़ते देखा है।

देश में प्राकृतिक बल्कि मानव निर्मित संसाधन भी सीमित हैं। प्राकृतिक संसाधनों की कमी और इनके बेतहाशा दोहन से उत्पन्न खतरों पर देश की सर्वोच्च न्यायपालिका भी चिंता व्यक्त करती रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है। जनसंख्या के अनुपात में चिकित्सा सुविधायें, शिक्षा, आवास, बिजली पानी, खाद्य सामग्री और न्याय प्रदान करने की व्यवस्था उपलब्ध करना मुश्किल हो रहा है।
आखिर अगर सरकार दो से ज्यादा संतान वाले व्यक्तियों को सरकारी नौकरी जैसी सुविधा से वंचित करने का निर्णय लेती है तो इसे सिर्फ मुसलमान विरोधी कैसे ठहराया जा सकता है? पंचायत स्तर के चुनावों के लिये दो संतानों का फार्मूला पहले ही कई राज्यों में लागू है। हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और ओडिशा आदि राज्यों ने बाकायदा कानून बना रखा है। इस कानून को उच्चतम न्यायालय ने भी संवैधानिक ठहराया है। दो से अधिक संतान वाले व्यक्तियों को सरकारी नौकरी नहीं देने का संबंध है तो इस बारे में सबसे पहले पिछले साल असम सरकार ने फैसला लिया था। राज्य में कुछ विशेष सरकारी योजनाओं का लाभ में दो बच्चों की नीति लागू की जायेगी। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश सहित भाजपा शासित राज्यों में इसी तरह की योजनाएं शुरू करने और दो संतान वाले परिवारों को ही सरकारी योजनाओं का लाभ देने पर सुगबुगाहट शुरू हो गयी।

इसी बीच, उत्तर प्रदेश के विधि आयोग ने भी कहा कि जनसंख्या नियंत्रण के लिये उचित योजना लागू करने पर विचार किया जा रहा है। इस आयोग के अध्यक्ष आदित्य नाथ मित्तल के अनुसार इसका उद्देश्य जनसंख्या नियंत्रण में मदद करने वालों को प्रोत्साहित करना है। देश में जनसंख्या की विस्फोटक स्थिति पर राष्ट्रपति से लेकर निचले स्तर तक राजनीतिक दलों और संगठनों ने चिंता व्यक्त की है। लगातार दो संतान की नीति अपनाने पर जोर दिया जाता है लेकिन हर बार इस तरह के प्रयास को आपात काल में ‘हम दो हमारे दोÓ और ‘छोटा परिवार सुखी परिवारÓ अभियान को सफल बनाने के दौरान हुयी ज्यादतियों की ओर सबका ध्यान खींचा जाता है। यह भी कितना विचित्र है कि एक ओर लगभग सभी दल बढ़ती जनसंख्या से चिंतित हैं और राज्यसभा में तो कांग्रेस तथा शिवसेना के सदस्य निजी विधेयक तक लाते हैं लेकिन सार्वजनिक मंचों पर कुछ दल इससे इतर दलीलें देने और अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव की बातें करते हैं।

देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में गठित संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले आयोग ने भी जनसंख्या नियंत्रण के लिये संविधान में एक नया अनुच्छेद 47-ए शामिल करने का सुझाव दिया था।

इससे पहले नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल के दौरान इस संबंध में एक संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश भी किया गया था। इसमें दो से अधिक संतान वाले व्यक्तियों को संसद और विधानमंडलों का चुनाव लडऩे के अयोग्य ठहराने का प्रस्ताव था लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी थी।

संभवत: यही वजह थी कि सबसे पहले पंचायत स्तर पर दो से ज्यादा संतानों वाले व्यक्तियों को चुनाव लडऩे से वंचित करने के बारे में कानून बनाये गये जो पूरी तरह सफल रहे हैं। चूंकि राजनीतिक बाध्यताओं की वजह से जनसंख्या नियंत्रण के बारे में केन्द्रीय कानून बनाने में दिक्कतें आ रही हैं, संभवत: इसीलिए राज्य अब अपने सीमित संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए सरकारी नौकरियों और कुछ विशेष योजनाओं में दो संतानों की नीति लागू करने की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि देर-सवेर राजनीतिक दल और तमाम संगठन देश में बढ़ती जनसंख्या की समस्या और चुनौतियों पर राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देशहित में इस पर अंकुश लगाने के बारे में सोचेंगे।

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