HamariChoupal,20,06,2024
नवम्बर, 2023 से अब तक उत्तराखंड के तमाम इलाकों में लगी आग की तकरीबन एक हजार दो सौ बयालिस घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं जिससे 1,696 हेक्टेयर क्षेत्रफल की वन संपदा का नुकसान हो चुका है। कम से कम दस लोगों की मौत अब तक हो चुकी है।
जैव-विविधता का जो नुकसान हुआ है, उसका अनुमान लगाना मुश्किल हैं। जैव-विविधता और जन-गण का नुकसान अभी रु का नहीं है, जिस पर तुरंत काबू पाने की जरूरत है।
सरकारी आंकड़े के मुताबिक राज्य के कुमाऊं मंडल में सबसे ज्यादा 598 और गढ़वाल मंडल में 532 जंगल की आग की घटनाएं घटीं। पिछले आठ महीने में आग की घटनाओं से वन संपदा का ही नाश नहीं हुआ है, बल्कि काफी बड़े इलाके में तपिश भी बढ़ गई है। इसका असर रानीखेत और अल्मोड़ा के जंगलों में बेकाबू आग के रूप में देखा जा सकता है। आग से जंगल ही नहीं जल रहे हैं, बल्कि लोगों के घर, दुकान और ऑफिस को भी नुकसान हो रहा है। महज दिल्ली में ही 26 मई, 2024 तक 8912 घटनाएं घट चुकी हैं, जिनमें 55 लोगों की जान जा चुकी है। अरबों का नुकसान हो चुका है।
देश-दुनिया में हर साल आग की लाखों घटनाएं घटती हैं जिससे करोड़ों की संपत्ति नष्ट होती है, मवेशी मारे जाते हैं, और कई लोग इसकी भेंट चढ़ जाते हैं। सरकारों के आग पर काबू पाने और मुस्तैदी के सारे दावे धरे रह जाते हैं। अब तक आग की बाइस हजार से अधिक घटनाएं देश के विभिन्न हिस्सों में घट चुकी हैं, जिससे करोड़ों-अरबों की संपत्ति खाक हो चुकी है। मवेशी और जन धन की जो हानि हुई है, वह अलग। देश के विभिन्न हिस्सों में जंगलों में आग लगने की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं खासकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। यूं तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, असम, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में भी आग से जंगल तबाह होते रहे हैं, लेकिन जिस बड़े पैमाने पर दोनों पहाड़ी राज्यों में तबाही देखने को मिलती है वैसी अन्य किसी राज्य में नहीं। पिछले तीस वर्षो में आग की लाखों छोटी-बड़ी घटनाएं घट चुकी हैं जिनमें लाखों हेक्टेयर जमीन में खड़े जंगल प्रभावित हुए हैं। जैविक-विविधता का नाश हुआ है और जीव-जंतु मारे गए।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट के अनुसार भारत को 50 फीसद जंगलों को आग से खतरा है, जिसमें अधिकतर जंगल हिमाचल, जम्मू, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और असम के हैं। कई बार सूखे पत्तों और घनी झाडिय़ों को जलाने के लिए आग लगाई जाती है। माना जाता है कि स्थानीय निवासियों द्वारा छोटे इलाकों में सूखे पत्तों और छोटी सूखी वनस्पतियों को जलाने से बड़ी विनाशकारी आग की घटनाएं नहीं होती हैं जिससे पर्यावरण की क्षति, वन क्षेत्र की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के विनाश का भी खतरा नहीं रहता। राज्य सरकार और केंद्र सरकार को इस तरह के लोगों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित करके छोटे इलाकों के पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले खर-पतवारों को जलाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। लेकिन यह काम बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। कई बार छोटी आग विकराल रूप धारण कर विनाश की वजह भी बन जाती है।
दरअसल, पहाड़ी जीवन समतल इलाकों में रहने वालों से कई मामलों में अलग होता है। पहाड़ी इलाकों के रहवासियों का पालन-पोषण जंगल ही करते रहे हैं। फल-फूल, मेवे, औषधियां, जलाऊ लकडिय़ां और मकान बनाने की लकडिय़ां भी जंगलों से आराम से मिल जाती थीं। 1988 में केंद्र सरकार ने जो वन नीति बनाई थी उससे जंगलों को संरक्षित करने और उनका विस्तार करने में सहूलियत तो मिली लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद जिस तरह से वनों में माफिया समूहों, तस्करों और वन विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से लूट मची, उससे उत्तराखंड बनने का उद्देश्य खंड-खंड हो गया। आज भी उत्तराखंड में तमाम तरह की समस्याएं हैं, जिनका हल निकाला जाना चाहिए। पर्यटन के मामले में उत्तराखंड देश के दूसरे राज्यों से काफी आगे है, लेकिन जिस रूप में पर्यटन का विकास हो रहा है, उससे कई तरह की दुारियां भी पैदा हो रही हैं जिनमें जंगल काट कर भवनों का निर्माण भी एक है।
आज उत्तराखंड में भारत ही नहीं, विदेश की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी यहां की अमूल्य संपदा का दोहन कर पूरे इलाके को खोखला करने में लगी हुई हैं। रोजगार देने और खुशहाली का नया दौर शुरू करने का सब्जबाग दिखाने वाली ये कंपनियां राज्य सरकार से खाद पानी पाती रही हैं। राज्य सरकार अवैध निर्माण, अवैध जगली जंतुओं के शिकार, अवैध खनन और वन की अमूल्य औषधियों एवं लकडिय़ों की तस्कारी रोकने में विफल रही है। जिस लक्ष्य को लेकर उत्तराखंड का निर्माण किया गया था, वह लक्ष्य आज भी अधूरा है।
पहाड़ के निवासियों द्वारा उत्तराखंड निर्माण के समय देखे गए स्वप्न जंगलों के साथ लगातार जलते आए हैं। हर बार चुनाव के समय हर पार्टी उत्तराखंड को सबसे खुशहाल राज्य बनाने का वादा करके सत्ता में आती है, और सत्ता मिलते ही अपना गुणा-भाग और नफा-नुकसान केवल पर्यटन को बढ़ावा देने और नई-नई देशी-विदेशी कंपनियों के जरिए केवल लाभ कमाने पर सारा ध्यान केंद्रित कर देती हैं। जो इस प्रदेश की मूल समस्याएं हैं, उनके लिए कोई ठोस दूरगामी कदम और योजनाएं नहीं बनाई जातीं। जब जंगल जलता है तो केवल जंगल नहीं जलता, बल्कि इस इलाके का आधार ही जल कर खाक हो जाता है।
देवभूमि कही जाने वाला इस पहाड़ी प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद यह अनगिनत प्राकृतिक त्रासदियों को झेलने के लिए मजबूर होता रहा है। शासन, प्रशासन प्राकृतिक त्रासदियों से छुटकारा दिलाने या मलहम लगाने के लिए तत्काल कदम उठाता तो है लेकिन जिस स्तर पर आग से लोगों का नुकसान होता है, उसकी भरपाई प्रशासन भी करने में नाकाम रहता है। जरूरत है जिम्मेदार विभाग और उनमें जिम्मेदार अधिकारियों को लापरवाही करने के प्रति चेतावनी देने की। कर्त्तव्य के प्रति लापरवाही को गम्भीर अपराध माना जाना चाहिए। प्रशासन अपने कर्त्तव्य के प्रति चुस्त रहेगा तो जगंल की बेकाबू होती आग भविष्य में विकराल रूप नहीं धारण कीं। और साथ में यह भी सोचना होगा कि प्राकृतिक संपदा को बचाने के लिए बड़े स्तर पर ऐसी योजना बनाई जानी चाहिए जिससे आगे लगने पर तुरंत उस पर काबू पाया जा सके।