उत्तराखंड के जंगलों की आग थमने का नाम नहीं ले रही है। राज्य के सभी पर्वतीय जिले आग की चपेट में हैं। चाहे गढ़वाल का क्षेत्र हो या कुमाऊं का, अलकनंदा भूमि संरक्षण वन प्रभाग हो, लैंसडाउन हो, चंपावत हो, अल्मोड़ा हो, पिथौरागढ़ हो या फिर केदारनाथ प्रभाग, सभी धधक रहे हैं। अभी तक राज्य में आग की लगभग 575 से अधिक घटनाओं में 689। 89 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि जलकर खाक हो चुकी है। इससे निपटने के लिए सेना ने मोर्चा संभाल लिया है। एनडीआरएफ की टुकड़ी भी आग बुझाने और बचाव कार्य में जुटी है। वायु सेना के हेलीकॉप्टर पानी की बौछार करने में लगे हुए हैं।
राज्य के सभी टाइगर रिजर्व में अलर्ट घोषित कर दिया गया है। पिथौरागढ़ में अस्कोट मृग अभयारण्य के जंगल, गैरसैंण में आयुर्वेदिक अस्पताल, जीआइसी भी आग से नहीं बचे हैं। सैकड़ों की तादाद में अखरोट, सेब, अमरूद समेत दर्जनों फलदार पेड़ आग की समिधा बन गये हैं। गोचर में सिरकोट, बाभनटिका, धुंधला और गौरीछाल के जंगल भी आग से धधक रहे हैं। यहां के कूंचा, कनाली छीना के सतगढ़, कंचनपुर तोक में जंगल की आग ने घरों तक को नहीं बख्शा है। पातालदेवी की आग ने जंगल ही नहीं, रिहायशी इलाकों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। बैजनाथ रेंज के गैरलैख, पुरड़ा, अमोल और धौलादेवी ब्लॉक वन पंचायत, छल्ली, पनुवानौला, धन्या, बातकुना तथा धमरधर व पौड़ी बैंड के पास के जंगल अब भी धधक रहे हैं। गोपेश्वर के सिरोसिणजी जंगल का आधे से अधिक हिस्सा स्वाहा हो गया है। चंपावत में क्रांतेश्वर के जंगल भी राख हो चुके हैं। यहां मकान भी आग से नहीं बचे हैं। डीडीहाट की भी यही स्थिति है। टनकपुर में आग के कारण बस्ती और जंगल धधक रहे हैं। पहाड़पानी, दीनी पंचायत, धारी के जंगल अब भी सुलग रहे हैं। नैनीताल में आग से आकाश में नीली धुंध छाई हुई है। वन विभाग के कर्मचारियों को पानी के टैंकर, एयर ब्लोअर, मशीनों और आग बुझाने के उपकरणों से लैस किया गया है।
वास्तव में, उत्तराखंड के जंगलों में शुष्क मौसम, मानवीय गतिविधियों, बिजली गिरने और जलवायु परिवर्तन के कारण हर वर्ष बार-बार आग लगने की घटनाएं होती हैं। विदित हो कि उत्तराखंड के पहाड़ चीड़ के जंगलों से भरे पड़े हैं। आग का सबसे बड़ा कारण चीड़ के पेड़ से निकला पिरूल है। इसके अतिरिक्त, चीड़ के पेड़ से निकलने वाला लीसा नामक तरल पदार्थ भी आग लगने पर पेट्रोल की तरह तेजी से फैलता है। चीड़ का पेड़ विशेषकर सूखे या शुष्क भूमि पर उगता है, जहां पानी की जरूरत नहीं होती। वह मिट्टी की पकड़ को ढीली कर वहां के पानी के स्रोत को समाप्त कर देता है। गर्मी में इसकी पत्तियां इतनी तेजी से आग पकड़ती हैं कि मिनटों में भयावह हो जाती हैं। वहीं जरा सी मानवीय भूल भी पहाड़ों में आग लगने का कारण बन जाती हैं। यह मौसम पहाड़ों पर खेतों की साफ-सफाई का होता है। किसान खेतों की सफाई कर घास आदि को इकट्ठा कर उसमें आग लगा देते हैं। तेज हवा के चलते आग एक के बाद दूसरे जंगल तक फैल जाती है। इससे न केवल जन-धन की भारी हानि होती है, हजारों-लाखों हेक्टेयर जंगल भी स्वाहा हो जाते हैं। हरित संपदा, जैव विविधता, कीट-पतंगे, वन्य जीव सहित असंख्य प्रजातियां आग में समिधा बन जाती हैं। आग का असर पहाड़ की आजीविका पर भी पड़ता है। ध्वस्त हो चुके ढांचे को पुनः खड़ा करने में प्रशासन-सरकार को हर वर्ष करोड़ों की राशि खर्च करनी पड़ती है सो अलग।
आग में चीड़ और पिरूल की अहम भूमिका को देखते हुए काफी समय से पहाडों पर बांज के पेड़ लगाये जाने की मांग हो रही है। पर सरकारें इसे लेकर उदासीन रही हैं। बांज के पेड़ उत्तराखंड में समुद्र तल से 1800 मीटर की ऊंचाई पर पाये जाते हैं। यह दुनिया का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो वायुमंडल से नमी खींचकर भूमि तक पहुंचाता है। इसी कारण बांज जहां-जहां पाये जाते हैं, वहां पानी भरपूर मात्रा में होता है। प्राकृतिक असंतुलन के दौर में जब पानी के स्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं, बांज के पेड़ लगाना समय की मांग है। इसकी पत्तियां बरसात के पानी को तेजी से बहने से रोकती हैं। इससे पानी को जमीन के अंदर जाने का अधिक समय मिलता है। जंगल की आग को लेकर चिंता गहराती जा रही है, क्योंकि इस वर्ष बीते वर्ष की तुलना में आग लगने की कहीं अधिक घटनाएं हुई हैं। वर्ष 2023 के मार्च व अप्रैल में जंगल में आग की 784 घटनाएं हुई थीं, जबकि इस वर्ष मार्च व अप्रैल में कुल 6,295 घटनाएं हुई हैं। और तो और, इस वर्ष आबादी वाले इलाकों में भी आग की घटनाएं बढ़ी हैं। हल्द्वानी में तो आग से हवा में जहर घुल रहा है जिससे लोग सांस लेने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं। वर्ष 2023 में सर्वाधिक प्रभावित जिले नैनीताल, चंपावत, अलमोड़ा, पौड़ी व पिथौरागढ़ थे। जबकि इस बार हरिद्वार छोड़कर सभी जिलों में आग की घटनाओं में वृद्धि हुई है। मौजूदा हालात स्थिति की गंभीरता का सबूत हैं। आग बुझाने के हर संभव प्रयास किये जा रहे हैं। परंतु, सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि आखिर जंगल की आग कब बुझेगी? क्या जंगल बचे रह पायेंगे? असली चिंता की वजह यही है। (ये लेखक के निजी विचार हैं। )
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