अगर विपक्ष ऐसे ही टोने-टोटकों और जोड़-तोड़ के समीकरणों के भरोसे बैठा रहा, तो कहा जा सकता है कि 2024 और उसके आगे भी आम चुनावों में उसका कोई भविष्य नहीं है। अगर वह अपना भविष्य बनाना चाहता है, तो उसे राजनीति की नई परिकल्पना करनी होगी- राजनीति क्या है इसकी एक नई समझ बनानी होगी। नई राजनीति नए तौर-तरीकों से ही की जा सकती है। इसलिए ऐसे तौर-तरीके ढूंढने होंगे।लेकिन ऐसा इलीट कल्चर (अभिजात्य संस्कृति) में जीते हुए करना असंभव है। यह एक श्रमसाध्य राजनीति है, जिसके लिए कम से कम आज का विपक्ष तो तैयार नहीं दिखता।
चार राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के नतीजे ऊपरी तौर पर यह बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के समर्थन आधार में विस्तार का सिलसिला अभी रुका नहीं है। तेलंगाना में एक हैरतअंगेज उलटफेर में कांग्रेस ने भारत राष्ट्र कांग्रेस (बीआरएस) को हरा दिया, लेकिन उसका भाजपा की सियासत के लिए कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होगा। असलियत तो यह है कि वहां भी भाजपा के समर्थन आधार में विस्तार ही हुआ है।
तो प्रश्न है कि आखिर यह परिघटना क्यों बेरोक आगे बढ़ रही है? क्या इसे विपक्ष की कुछ बुनियादी नाकामियों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? इन नाकामियों में सर्व-प्रमुख तो संभवत: यही है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भाजपा ने देश की राजनीति का संदर्भ बिंदु जिस मूलभूत रूप में बदल दिया है, विपक्ष ने संभवत: अभी तक उसके समझने की शुरुआत भी नहीं की है। वह अभी तक अपनी रणनीतियां इन्कम्बैंसी-एंटी इन्कम्बैंसी और जातीय-सामाजिक समीकरणों के पुराने संदर्भ बिंदुओं पर ही बना रहा है।
वैसे यह बात सिर्फ संसदीय विपक्षी दलों पर लागू नहीं होती। बल्कि व्यापक रूप से यह लगभग समग्र गैर-भाजपा सोच वाले दायरे/शक्तियों पर लागू होती है। इसलिए कि उस दायरे में भी इस बुनियादी सवाल पर शायद ही कभी चर्चा होती है।
बहरहाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के ताजा चुनाव नतीजों के बाद यह महत्त्वपूर्ण सवाल फिर प्रासंगिक हो गया है कि भाजपा आखिर लगातार जीत क्यों रही है? इस प्रश्न पर चर्चा से पहले ये तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि आज भी भाजपा का मुख्य गढ़ हिंदी भाषी प्रदेश और देश के पश्चिमी राज्य ही हैं। इसलिए उसकी ताकत पर चर्चा के संदर्भ में यहां के सियासी रुझान ही सबसे अहम हैं।
मुमकिन है कि इन क्षेत्रों में भी कभी-कभार कुछ स्थानीय समीकरणों और कारणों से भाजपा हार जाती हो। इसके बावजूद तथ्य यही है कि उस हाल में भी उसके अपने ठोस समर्थन आधार में ज्यादा सेंध नहीं लगती। यहां तक कि दक्षिण राज्य कर्नाटक में पिछले विधानसभा चुनाव में भी अन्य समीकरणों के कारण भले भाजपा हार गई, लेकिन अपने वोट आधार (36 प्रतिशत) की रक्षा करने में वह वहां भी सफल रही थी।
तो विपक्ष मोटे तौर पर कहीं भी भाजपा के समर्थन आधार में विस्तार को क्यों नहीं रोक पा रहा है? इसकी एक वजह यह बताई जा सकती है कि भाजपा के पास आज अकूत संसाधन हैं। वह देश के कॉरपोरेट सेक्टर का प्रमुख सियासी औजार बनी हुई है, जिससे उसे असीमित पैसा और प्रचार तंत्र उपलब्ध हो जाता है। इसके अलावा संवैधानिक एवं वैधानिक संस्थाओं पर उसका पूरा नियंत्रण बन चुका है, जिसका लाभ भी उसे मिलता है। इस रूप में विपक्ष को चुनावी मुकाबले का समान धरातल नहीं मिलता। शुरू से ही यह धरातल भाजपा की तरफ झुका होता है।
लेकिन यह आज का एक सच है और विपक्षी पार्टियां इसे स्वीकार करते हुए ही चुनाव मैदान में उतरती हैं। इस तथ्य से वे वाकिफ हैं कि अब भारत में चुनाव भले स्वतंत्र होते हों, लेकिन ये निष्पक्ष नहीं होते। मगर उन्हें इस बात से भी वाकिफ होना चाहिए भाजपा अगर आज सिस्टम को अपने अनुकूल ढाल सकी है, तो पहले उसने ऐसा करने सकने की अपनी स्थिति बनाई। असल सवाल यह है कि आखिर उसकी वो स्थिति कैसे बनी?
अगर अंग्रेजी के दो शब्दों से इस सूरत का चित्रण करना चाहें, तो इस रूप में ये सवाल इस तरह पूछा जाएगा कि भारतीय राजनीति में भाजपा वह निर्णायक मोड़ लाने में कैसे सफल हुई, जिससे वह चुनाव जीतने योग्य (यानी मतदाताओं और संस्थाओं का ठोस समर्थन) तैयार कर पाई? विपक्ष और गैर-भाजपा समूह अगर इस सवाल का सही उत्तर नहीं ढूंढ पाते हैं, तो निकट भविष्य में भाजपा को किसी चुनाव में हराना अगर असंभव नहीं, बेहद मुश्किल जरूर बना रहेगा।
चूंकि 2014 के बाद भारतीय राजनीति के संदर्भ बिंदु में आए संक्रमण का बिन्दु को समझने में विपक्ष नाकाम है, इसलिए उसके पास भाजपा की कोई काट आज मौजूद नहीं है। उस हाल में वह कुछ सियासी टोना-टोटकों से भाजपा को हरा देने की जुगत से ज्यादा आगे नहीं सोच पाता। जबकि उसने इस संक्रमण का बिन्दु और इसके परिणामस्वरूप बने भाजपा के क्रांतिक द्रव्यमान को समझने का प्रयास किया होता, तो देख पाता कि कॉरपोरेट और संस्थागत समर्थन भाजपा की ताकत का प्रमुख तत्व जरूर हैं, लेकिन सिर्फ इतने भर से भाजपा की चुनावी जीत तय नहीं होती। अगर इस बौद्धिक प्रयास में विपक्ष जुटता, तो वह देख पाता कि,
भाजपा अपनी की हिंदुत्व की विचाराधारा को भारत में प्रमुख राजनीतिक विचार के रूप में स्थापित में सफल हो गई है।?
इस आधार पर वह अपने पक्ष में मतदाताओं की इतनी ठोस गोलबंदी कर चुकी है कि चुनावों में उसे परास्त करना बेहद कठिन हो गया है। इस गोलबंदी का एक कारण संभवत: यह भी है कि राष्ट्रवाद को हिंदुत्व के नजरिए से परिभाषित करने में भाजपा काफी हद तक सफल हो चुकी है। इससे बहुत बड़ी संख्या में लोगों के मन-मस्तिष्क में हिंदुत्व की पैठ बन गई है।?
प्रत्यक्ष लाभ बांटने को उसने विकास नीति का पर्याय बना दिया है। चूंकि उसके हाथ में सत्ता है, इसलिए इस कथित रेवड़ी संस्कृति में उससे होड़ कर पाना विपक्ष के लिए चुनौती भरा हो गया है।?
ये सब इसलिए हुआ है, क्योंकि इन तमाम बिंदुओं पर भाजपा चुनौती विहीन अवस्था में है। मतलब यह कि उसे इन बिदुंओं पर चुनौती देने वाली कोई ताकत मौजूद नहीं है। ऐसी कोई ताकत नहीं है, जो ऐसा करने का प्रयास करती दिखे।
प्रत्यक्ष लाभ बांटने का वादा में विपक्षी दल भाजपा का मुकाबला करने की कोशिश जरूर करते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि इस बिंदु पर भी भाजपा ने उनके लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं छोड़ी है। चूंकि इन मुद्दों पर भाजपा का मुकाबला करने में विपक्ष अक्सर अपने को अक्षम पाता है, तो फिर उसका एकमात्र सहारा वह कुछ टोने-टोटके ही बचते हैँ। लेकिन ऐसे टोने-टोटकों के सफल होने की आरंभ से ही कोई गुंजाइश नहीं होती।
उदाहरण के तौर पर एक टोटके की चर्चा करते हैँ। हाल में कांग्रेस और कई अन्य विपक्षी दलों ने जातीय जनगणना के वादे और अस्मिता की राजनीति को अपना सहारा बनाया है। इसके पीछे सोच संभवत: यह है कि अगर जातीय विभाजन रेखा हिंदुओं के बीच राजनीतिक विमर्श का मुख्य बिंदु बन जाए, तो भाजपा की हिंदुत्व की सियासत को हराया जा सकता है। यह मुद्दा अपनाते वक्त कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों ने यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि आखिर जातीय न्याय की राजनीति उनका ट्रंप कार्ड कैसे हो सकती है, क्योंकि इससे खुद उनके अपने रिकॉर्ड पर कई सवाल उठ खड़े होते हैँ।
मसलन, अगर कांग्रेस नेता राहुल गांधी यह कहते हैं कि सेक्रेटरी स्तर पर आज ओबीसी के सिर्फ तीन अधिकारी हैं, तो यह प्रश्न उनसे भी तो पूछा जाएगा कि इसके लिए कांग्रेस की कितनी जिम्मेदारी बनती है? या बिहार की जातीय जनगणना से जिन जातियों की कमजोर स्थिति सामने आई है, क्या वे यह नहीं पूछेंगी कि बिहार में 33 वर्ष से किसका राज है? उसके बाद का प्रश्न यह है कि जो पिछड़ापन सामने आया है, उसे दूर करने का क्या कार्यक्रम संबंधित दलों के पास है? क्या इसके लिए इन दलों के पास कोई विशिष्ट विकास नीति है?
बहरहाल, मसला सिर्फ इतना नहीं है। दरअसल, भाजपा अगर आज देश के एक बड़े हिस्से में अपराजेय मालूम पड़ती है, तो उसका एक प्रमुख कारण सोशल इंजीनियरिंग की उसकी नीति भी है। जातीय प्रतिनिधित्व की आकांक्षाओं को उसने अपनी हिंदुत्ववादी राजनीति के बड़े तंबू अंदर समेट लिया है। इस तरह वह 1990 के दशक में उभरी मंडलवादी राजनीति की काट तैयार कर ली है। आज हकीकत यह है कि उत्तर भारत में ओबीसी मतदाताओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा का मतदाता है। दलित और आदिवासी समुदायों में भी उसकी पैठ अब काफी मजबूत हो चुकी है।
इस हकीकत के बीच समय के चक्र को पीछे लौटा कर सियासी चमत्कार कर दिखाने की सोच असल में समझ के दिवालियेपन का संकेत देती है। राजनीति में आगे का एजेंडा पेश करने के बजाय अतीत में कभी कारगर रही रणनीति की तरफ लौटना एक तरह का सियासी खोखलापन भी है। तीन हिंदीभाषी राज्यों में फिलहाल कांग्रेस को इस खोखलेपन की महंगी कीमत चुकानी पड़ी है। इस बीच इस बेअसर मुद्दे को अपना सेंट्रल थीम बना कर कांग्रेस ने सबकी पार्टी होने के अपने यूएसपी को भी संदिग्ध बना दिया है।
तो सार यह है कि अगर विपक्ष ऐसे ही टोने-टोटकों और जोड़-तोड़ के समीकरणों के भरोसे बैठा रहा, तो कहा जा सकता है कि 2024 और उसके आगे भी आम चुनावों में उसका कोई भविष्य नहीं है। अगर वह अपना भविष्य बनाना चाहता है, तो उसे राजनीति की नई परिकल्पना करनी होगी- राजनीति क्या है इसकी एक नई समझ बनानी होगी। नई राजनीति नए तौर-तरीकों से ही की जा सकती है। इसलिए ऐसे तौर-तरीके ढूंढने होंगे।
लेकिन ऐसा इलीट कल्चर (अभिजात्य संस्कृति) में जीते हुए करना असंभव है। यह एक श्रमसाध्य राजनीति है, जिसके लिए कम से कम आज का विपक्ष तो तैयार नहीं दिखता।
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