एक समय की बात है, देवराज इंद्र ऐरावत हाथी पर सवार होकर भ्रमण कर रहे थे। मार्ग में उनकी भेंट महर्षि दुर्वासा से हुई, जिन्होंने प्रसन्न होकर अपने गले की पुष्पमाला इंद्र को प्रसादस्वरूप प्रदान की। इंद्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रखा, लेकिन ऐरावत ने उसे सूंड से नीचे गिराकर पैरों से कुचल दिया।
अपने प्रसाद का अपमान देखकर महर्षि दुर्वासा ने इंद्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। इस शाप के प्रभाव से इंद्र शक्तिहीन हो गए और दैत्यराज बलि के साथ युद्ध में पराजित होकर तीनों लोकों पर उनका अधिकार खो बैठे।
पराजित देवता ब्रह्माजी के साथ भगवान विष्णु की शरण में गए और इस विपत्ति से मुक्ति की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने सलाह दी कि वे दैत्यों से संधि करें और उनके सहयोग से मंदराचल पर्वत को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें। इस मंथन से अमृत प्रकट होगा, जिसे पीकर देवता अमर हो जाएंगे और पुनः स्वर्ग प्राप्त कर सकेंगे।

इंद्र ने दैत्यराज बलि से संधि की, और देवता-दैत्यों ने मिलकर मंदराचल को समुद्र तट तक ले जाने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। तब भगवान विष्णु ने प्रकट होकर मंदराचल को उठाकर गरुड़ पर रख लिया और क्षीरसागर के तट पर पहुंचा दिया।
मंदराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ। मंदराचल के डूबने पर भगवान विष्णु ने कूर्म (कच्छप) अवतार धारण कर पर्वत को अपने पीठ पर धारण किया। मंथन से पहले विष प्रकट हुआ, जिसे भगवान शिव ने लोककल्याण के लिए पान किया। इसके बाद लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात पुष्प, सुरा, धन्वंतरि, चंद्रमा, पुष्पक विमान, ऐरावत हाथी, पाञ्चजन्य शंख, रम्भा अप्सरा, कामधेनु, उच्चै:श्रवा घोड़ा और अंत में अमृत कलश प्रकट हुए।

अमृत कलश के प्रकट होते ही दैत्यों ने उसे छीन लिया, क्योंकि वे सबसे पहले अमृतपान करना चाहते थे। इस विवाद के बीच एक अद्वितीय सुंदर नारी प्रकट हुई, जो वास्तव में भगवान विष्णु का मोहिनी रूप था। दैत्यों ने उससे अमृत बांटने का अनुरोध किया। मोहिनी ने शर्त रखी कि उसके विभाजन में कोई बाधा नहीं डाली जाएगी।
दैत्यों ने यह शर्त स्वीकार की, और देवता-दैत्य अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए। मोहिनी रूपधारी भगवान ने देवताओं को अमृत पिलाना शुरू किया। इस बीच, राहु नामक दैत्य ने देवता का रूप धारण कर सूर्य और चंद्रमा के बीच बैठकर अमृत का घूंट ले लिया। सूर्य और चंद्रमा ने इसका संकेत दिया, तो भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से राहु का मस्तक काट डाला।

इसके बाद देवताओं और दैत्यों के बीच संग्राम हुआ, जिसमें अमृत और भगवान विष्णु की कृपा से देवताओं की विजय हुई और उन्होंने पुनः स्वर्ग प्राप्त किया।