प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन के बीच अंतरिक्ष से लेकर सरजमीं और सागर तक हुए समझौतों पर गौर करें तो यही कहा जा सकता है। अमेरिका ने भारत के आग्रहों को जिस तरह हाथों हाथ लिया, उनसे यही लगता है कि बाइडेन की पूरी कोशिश मोदी की यात्रा को हर हाल में सारवान बनाने की थी। मोदी का यह कहना लाजिमी था कि इससे ‘वैश्विक रणनीतिक साझेदारी में एक नया अध्याय शुरू’ हो गया है। सच में यह एक ऐतिहासिक प्रस्थान बिंदु है।
अमेरिका का उन्नत जेट इंजन के भारत में निर्माण, ड्रोन, सेमीकंडक्टर का भारत में बेस बनाने, इसको बनाने वाली मशीन का निर्माण भारत में करने वाली कंपनी के करोड़ों-अरबों के निवेश पर समझौते को देखें तो तकनीक का ऐसा हस्तांतरण पहले कभी नहीं हुआ था। इसका मतलब है कि अमेरिका भारत को भविष्य की तकनीकों से लैस करना चाहता है। वह न केवल हथियार बेच कर रूस की पहली जगह लेना चाहता है बल्कि बीजिंग को रोकने के लिए नई दिल्ली की ताकत में भी इजाफा करना चाहता है।
यह समझौता इस ओर भी संकेत करता है कि अमेरिका अपनी कंपनियों को चीन से वापस बुलाए बिना ही भारत को वस्तुओं की आपूर्ति का वैसा ही एक संगठित बेस बनाना चाहता है। इसका फायदा भारत को रोजगारपरक अर्थव्यवस्था बनने में मिलेगा। देखा जाए तो मोदी के नेतृत्व में भारत की तरफ से अमेरिका के प्रति गर्मजोशी दिखी है। तो क्या भारत अपनी स्वायत्त स्थिति से कोई समझौता कर लिया है? ऐसा होता नहीं लगता।
तय पटकथा के अनुरूप चीजें अपने पक्ष में करते हुए भी मोदी ने अमेरिकी चाह के अनुरूप न तो रूस की आलोचना की है और न ही चीन से दो-दो हाथ करने वाला वक्तव्य ही दिया है। इतना ही नहीं, असहमति को कुचलने, अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा रोकने और उनकी सुरक्षा में कोताही के आरोपों पर भी बाइडेन ने ध्यान नहीं दिया है। मोदी के इस जवाब पर संतोष कर वे आगे बढ़ गए हैं कि ‘लोकतंत्र भारत के डीएनए में है’, तो इसकी एक वजह भविष्य के लिए भारत पर लगाया गया दांव है। देखना होगा कि मोदी का भारत विदेश नीति में स्वायत्तता बनाए रखने के रास्ते पर किस हद तक और कैसे बढ़ पाता है। फिलहाल, वह अमेरिका का रणनीतिक साझेदार-दोस्त बन गया है।