07,05,2023{RNS}
अजीत द्विवेदी
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, जहां प्रचार में नेताओं के भाषण से राजनीति का न्यूनतम स्तर तय हो रहा है। ‘जहरीला सांप’, ‘विषकन्या’, ‘नालायक’, ‘दिल्ली का शाही परिवार’, ‘40 फीसदी कमीशन की सरकार’, ‘85 फीसदी कमीशन की सरकार’, ‘दिल्ली का एटीएम’ जैसे विशेषणों के साथ देश और प्रदेश के बड़े नेता प्रचार कर रहे हैं। यह प्रचार दक्षिण भारत के एक राज्य में हो रहा है, जो विकसित है, समृद्ध है, शिक्षित है और जिसके आर्थिक-सामाजिक मॉडल को देश के दूसरे हिस्सों, खासकर उत्तर भारत में लागू करने की अक्सर बातें होती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि राजनीति का स्तर सिर्फ नेताओं के भाषण से तय हो रहा है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने चुनाव के लिए जो घोषणापत्र जारी किया है वह भी भारतीय राजनीति के लगातार गिरते स्तर को दिखाता है। दोनों पार्टियों का घोषणापत्र तमाम श्रेष्ठतम राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक सिद्धांतों को वोट बैंक की राजनीति में तब्दील करता है।
भाजपा की घोषणा– भारतीय जनता पार्टी ने एक मई को मजदूर दिवस के दिन अपना घोषणापत्र जारी किया। इसमें उसने राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने पर विचार के लिए कमेटी बनाने का वादा किया। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनवाने और बाहरी या घुसपैठियों को बाहर निकालने का संकल्प जताया। मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया पर पाबंदी के फैसले की याद दिलाई। चार फीसदी मुस्लिम आरक्षण खत्म करके उसे राज्य के दो शक्तिशाली समुदायों- लिंगायत और वोक्कालिगा में बराबर बांटने के फैसले का जिक्र किया। इसके अलावा पार्टी ने महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की सुविधा देने, गरीब परिवारों को हर महीने 10 किलो अनाज और हर दिन आधा किलो ‘नंदिनी’ का दूध देने, गरीब परिवारों को हर साल रसोई गैस के तीन सिलिंडर मुफ्त देने, तीर्थाटन के लिए 25 हजार रुपए देने जैसी घोषणाएं की हैं। इसके अलावा भी कुछ अन्य घोषणाएं और वादे हैं, लेकिन उनका ज्यादा जिक्र नहीं हुआ है और उन पर वोट नहीं मांगा जा रहा है।
कांग्रेस की घोषणा- कांग्रेस ने दो मई को अपना घोषणापत्र जारी किया, जिसमें आरक्षण की सीमा 50 से बढ़ा कर 75 फीसदी करने का वादा किया गया। चार फीसदी मुस्लिम आरक्षण बहाल करने की घोषणा हुई। पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के साथ साथ बजरंग दल का जिक्र करते हुए नफरत फैलाने वाले सभी संगठनों पर पाबंदी का वादा किया गया। इसके अलावा हर परिवार को दो सौ यूनिट बिजली मुफ्त में देने, ग्रेजुएट युवाओं को दो साल तक तीन हजार रुपया महीना देना, डिप्लोमा करने वाले युवाओं को डेढ़ हजार रुपया महीना देना, घर की महिला मुखिया को हर महीने दो हजार रुपए देने, महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की सुविधा देने, गरीब परिवारों को उनकी पसंद का 10 किलो अनाज हर महीने मुफ्त देने जैसी घोषणाएं हुईं। घोषणापत्र में और भी कई बातें हैं लेकिन पार्टी मुख्यरूप से इन्हीं बातों पर वोट मांग रही है।
अगर कर्नाटक की आर्थिक-सामाजिक वास्तविकताओं को देखें तो दोनों पार्टियों के घोषणापत्र की मुख्य और बहुत ज्यादा प्रचारित वादों में से कोई भी वादा उनको एड्रेस नहीं करता है। राज्य के हालात और वहां के लोगों की जरूरतें और उम्मीदें बिल्कुल अलग हैं। कर्नाटक की बुनियादी समस्याओं को दूर करने और सामाजिक स्तर पर संरचनात्मक खामियों को दूर करने का कोई वादा किसी पार्टी के घोषणापत्र में नहीं किया गया है। सबसे हैरान करने वाली बात है कि दोनों पार्टियों ने अलग-अलग माध्यम से राज्य के लोगों की राय मंगाई थी और उनका दावा है कि उसी आधार पर ‘संकल्प पत्र’ या ‘दृष्टि पत्र’ तैयार किया गया है। सवाल है कि क्या कर्नाटक के लोग यही चाहते हैं कि सरकारें आरक्षण बढ़ाएं, अमुक संगठन पर पाबंदी लगाएं और अमुक पर नहीं लगाएं या मुफ्त में दूध और अनाज दें? अगर सचमुच ऐसा है तो यह एक अलग गंभीर चिंता का विषय है।
बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने या समाज व सिस्टम में मौजूद संरचनात्मक असमानता व भेदभाव को दूर करने के लिए एफर्मेटिव एक्शन के तौर पर आरक्षण की व्यवस्था एक शक्तिशाली उपाय है। लेकिन कर्नाटक में पार्टियों ने इसे चार फीसदी और 75 फीसदी के आंकड़े में तब्दील कर दिया है। उन्होंने इसे राजनीतिक हथियार बनाया है। कांग्रेस का घोषणापत्र देख कर ऐसा लग रहा है कि आरक्षण की सीमा बढ़ा देने और राज्य के लोगों को कुछ चीजें मुफ्त में दे देने से कर्नाटक की सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। दूसरी ओर भाजपा की घोषणाओं से ऐसा लग रहा है कि मुस्लिम आरक्षण खत्म करके उसे वोक्कालिगा और लिंगायत के बीच दो दो फीसदी बांट देने और खाने-पीने की चीजें मुफ्त में दे देने से राज्य खुशहाल हो जाएगा और करीब सात करोड़ लोगों की सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। लेकिन असल में ऐसा नहीं है।
असल में तमाम चमकदार तस्वीरों के बावजूद कर्नाटक देश के अन्य राज्यों की तरह ही गरीबी, असमानता, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं से जूझ रहा है और किसी पार्टी ने इन समस्याओं को दूर करने के लिए कोई संस्थागत या संरचनात्मक प्रयास करने का वादा नहीं किया है या उसकी कोई रूप-रेखा प्रस्तुत नहीं की है।
बेंगलुरू, मैसुरू जैसे महानगरों और बड़े शहरों की चमक-दमक देख कर यह अंदाजा नहीं होता है कि कर्नाटक में कितनी गरीबी या बेरोजगारी है। आईटी और आईटी सर्विसेज पर आधारित बड़ी बड़ी कंपनियों के कारोबार और मुनाफे के आंकड़े देख कर शायद ही किसी को यकीन होगा कि कर्नाटक में अब भी लगभग आधी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2019-20 में राज्य संपदा में बढ़ोतरी यानी ग्रॉस स्टेट वैल्यू एडेड, जीएसवीए में कृषि का हिस्सा सिर्फ 12 फीसदी है लेकिन राज्य की 46 फीसदी आबादी को रोजगार कृषि सेक्टर में मिला है। इससे पता चलता है कि आधी आबादी कितनी कम कमाई में जीवन चला रही है। सबको पता है कि राज्य में पानी का संकट है और कृषि कार्य कई कारणों से बेहद मुश्किल है। फिर भी कृषि की समस्याएं दूर करने और किसानों का कल्याण करने के वादे पर कोई वोट नहीं मांग रहा है।
नीति आयोग की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक में 13.2 फीसदी गरीबी है, जो पूरे दक्षिण भारत में सबसे अधिक है। तमिलनाडु में तो सिर्फ 4.89 फीसदी और केरल में सिर्फ 0.71 फीसदी गरीबी है। शहरीकरण की चकाचौंध में इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। ध्यान रहे कर्नाटक में शहरीकरण 38 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 31 फीसदी है। बेंगलुरू देश का आईटी हब है, आईटी आधारित सेवाएं देने वाली तमाम बड़ी कंपनियां बेंगलुरू में हैं, तकनीक पर आधारित स्टार्टअप की एक तरह से राजधानी है बेंगलुरू इसलिए इसकी चमक-दमक में बाकी समस्याओं पर किसी की नजर नहीं जाती है। इस पर भी किसी का ध्यान नहीं जाता है कि जीएसवीए में सर्विस सेक्टर की हिस्सेदारी 66 फीसदी है, लेकिन इस सेक्टर में रोजगार सिर्फ 33 फीसदी है। जीएसवीए में उद्योग की हिस्सेदारी सिर्फ 21 फीसदी है, जो महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों के मुकाबले बहुत कम है। इस सेक्टर में रोजगार भी सिर्फ 19 फीसदी है। 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य के अदंर माइग्रेशन 65 फीसदी से ज्यादा हो गया है, इसमें ज्यादातर कृषि मजदूर हैं, जो शहरी रोजगार की अनिश्चितता और कम वेतन की वजह से कृषि कार्य में शामिल हैं। बेरोजगारी जरूर ढाई फीसदी के करीब है लेकिन जिनके पास रोजगार है उनमें से ज्यादातर चकाचौंध वाले सेक्टर या औद्योगिक सेक्टर में नहीं हैं और इसलिए उनकी कमाई सिर्फ काम चलाने लायक है।
कर्नाटक की इस हकीकत की रोशनी में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का घोषणापत्र देखें तो लगेगा कि ये पार्टियां मान रही हैं कि लोग इतने नासमझ हैं कि धार्मिक या जातीय आधार पर उनका वोट लिया जा सकेगा और अगर इससे काम नहीं चलेगा तो ‘मुफ्त की रेवडिय़ों’ से तो उनका वोट जरूर ही हासिल किया जा सकेगा। यह सिर्फ कर्नाटक की बात नहीं है, बल्कि पूरे देश में राजनीति का स्तर यही हो गया है। कही भी नागरिकों का जीवन बेहतर बनाने, उन्हें सम्मान से जीने की स्थितियां मुहैया कराने, उन्हें वैज्ञानिक चेतना से संपन्न बनाने, दुनिया के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करने का न तो वादा किया जा रहा है और न उसके लिए काम किया जा रहा है।