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चुनाव से पहले कानूनी लड़ाई

अजीत द्विवेदी

विपक्षी पार्टियों को अगले साल के लोकसभा चुनाव से पहले लंबी और बेहद सघन कानूनी लड़ाई लडऩी है। उससे बचेंगे तभी चुनाव लडऩे के लायक रहेंगे। विपक्ष को राजनीतिक लड़ाई भी कानूनी तरीके से लडऩी है और जमीन पर चुनाव लडऩे से पहले अदालत के परिसर में राजनीति की लड़ाई भी लडऩी है। यह अनायास नहीं था कि देश की लगभग सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर सुप्रीम कोर्ट में पहुंचीं थीं और केंद्रीय एजेंसियों- सीबीआई व ईडी के दुरुपयोग की शिकायत की थी। यह अलग बात है कि उनकी शिकायत खारिज हो गई और सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह राजनेताओं के लिए अलग नियम नहीं बना सकती है। लेकिन इस मामले से यह जाहिर हुआ कि विपक्ष के सामने चुनौती कितनी गंभीर है। अदालत में जाकर विपक्ष देश के मतदाताओं को भी यह मैसेज देने में कामयाब हुआ कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विपक्ष को चुनाव लडऩे का समान अवसर नहीं मिल रहा है या उसकी संभावना को कमजोर करने के लिए उसे केंद्रीय एजेंसियों के जरिए परेशान किया जा रहा है। हालांकि यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जिस ईडी की शिकायत लेकर विपक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था उसकी बेहिसाब शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगी हुई है।
विपक्ष की कानूनी लड़ाई के दो पहलू हैं। पहला, केंद्र सरकार के नीतिगत फैसलों पर अदालत की मुहर या चुप्पी और दूसरा, केंद्रीय एजेंसियों के जरिए विपक्ष पर कार्रवाई। अगर बारीकी से देखें तो अगले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का जो भी कोर मुद्दा होगा उसमें अदालतों की भूमिका भी दिखेगी। अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का उद्घाटन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जनवरी 2024 में होना है। मंदिर निर्माण का फैसला सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने पूरी विवादित जमीन हिंदू पक्ष को दी और मुस्लिम पक्ष को विवादित जगह से कहीं दूर जमीन देने का आदेश दिया। अगर काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर से सटे ज्ञानवापी मस्जिद में सर्वे हुआ और वहां शिवलिंग मिलने की चर्चा हुई तो वह भी अदालत के जरिए हुआ। मथुरा में अगर शाही ईदगाह का मुद्दा चर्चा में है तो वह भी अदालत की वजह से है। तीन तलाक को अवैध करने का फैसला सर्वोच्च अदालत ने दिया और अब बहुविवाह व हलाला का मामला भी अदालत में है। कर्नाटक में स्कूल-कॉलेजों में हिजाब पहनने को लेकर विवाद हुआ, जिस पर सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की बेंच का फैसला बंटा हुआ था। अभी तक तीन जजों की बेंच बना कर सुनवाई शुरू नहीं हुई है और राज्य में हिजाब पर पाबंदी जारी है।

सो, ऐसे नीतिगत मामले, जिनका भारतीय जनता पार्टी चुनावों में इस्तेमाल करती है या आगे करेगी, उन पर अदालतों से या तो सरकार के पक्ष में या हिंदू पक्ष के हक में फैसला आया है या मामला लंबित है और कानून अमल में है। मिसाल के तौर पर जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त करने का मामला है। इस मामले में कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थीं और अब जाकर फरवरी 2023 में अदालत ने इन सारी याचिकाओं सूचीबद्ध करने की बात कही है। सोचें, याचिकाएं अगस्त 2019 के बाद ही दायर की गई थीं लेकिन अभी तक मामला तकनीकी पहलुओं में उलझा हुआ है। संशोधित नागरिकता कानून यानी सीएए को सरकार ने अभी लागू नहीं किया है लेकिन संसद से पास होने और राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद से ही इस कानून के खिलाफ याचिकाएं सर्वोच्च अदालत में दायर की गई हैं और अभी तक उनका निपटारा नहीं हुआ है। इन मुद्दों के लंबित रहने पर भी लाभार्थी भारतीय जनता पार्टी ही है।
विपक्षी पार्टियों के सामने इलेक्टोरल बॉन्ड का एक बड़ा मसला है। जब से कॉरपोरेट चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था लागू हुई है तब से इसकी पारदर्शिता पूरी तरह से समाप्त हो गई है और साथ ही विपक्षी पार्टियों के लिए चंदे का स्रोत लगभग सूख गया है। इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए दिए जाने वाले चंदे का 80 फीसदी से ज्यादा हिस्सा केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को जाता है। चंदे की इस व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी सर्वोच्च अदालत अभी यह तय नहीं कर पाई है कि इसे सुनवाई के लिए संविधान पीठ को भेजा जाए या नहीं। सो, चाहे चुनाव में इस्तेमाल होने वाले राजनीतिक मुद्दे हों या चुनाव लडऩे के लिए संसाधन जुटाने का मामला हो, सब कुछ कानून के हाथ में है और विपक्ष बेचारा बना हुआ है।

इसके बाद बारी आती है कि निजी कानूनी मुकदमों की। देश की लगभग सभी विपक्षी पार्टियां किसी न किसी स्तर पर अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई अदालतों में लड़ रही हैं। यह कैसी विडंबना है कि पार्टियों और नेताओं के अस्तित्व का फैसला चुनाव के मैदान में होना चाहिए लेकिन भारत में ऐसी स्थितियां बन गई हैं कि यह फैसला जांच एजेंसियों और अदालतों के जरिए हो रहा है। सोचें, कैसे मानहानि के एक केस में सूरत की एक अदालत ने राहुल गांधी को दो साल की सजा सुना दी और इस आधार पर उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त हो गई। कांग्रेस के सर्वोच्च नेता लोकसभा के लिए अयोग्य हैं! हो सकता है कि आगे उनको अदालत से राहत मिल जाए लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं होगी कि उनकी मुश्किलें समाप्त हो जाएंगी। उनके खिलाफ पटना से लेकर भिवंडी और सूरत से लेकर मुंबई तक की अदालतों में इस तरह के कई मुकदमे दर्ज हुए हैं। इसके अलावा ‘नेशनल हेराल्ड’ की संपत्तियों में कथित गड़बड़ी के मामले में ईडी ने उनसे कई दिन पूछताछ की है और उसकी तलवार उनकी गर्दन पर से हटी नहीं है। भाजपा नेता अब भी सोनिया और राहुल गांधी को जमानत पर छूटा नेता कह कर उनको कमतर बताते रहते हैं।
इसके बाद ऐसे नेताओं की एक लंबी सूची बन जाएगी, जिनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों ने मुकदमे दर्ज किए हैं, छापे मारे हैं, गिरफ्तारियां की हैं या गिरफ्तारी की तलवार लटकाई है। कथित हवाला मामले में आम आदमी पार्टी के सत्येंद्र जैन और शराब नीति घोटाले में मनीष सिसोदिया जेल में हैं और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ऊपर तलवार लटकी है। इसी मामले में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी के कविता से पूछताछ हुई है और उनके ऊपर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। शिक्षक भर्ती घोटाले में तृणमूल कांग्रेस के पार्थ चटर्जी और पशु तस्करी मामले में अणुब्रत मंडल जेल में हैं और ममता बनर्जी के भतीजे व पार्टी सांसद अभिषेक बनर्जी पर तलवार लटकी है। चारा घोटाले में लालू प्रसाद सजायाफ्ता हैं और उनके बेटे तेजस्वी यादव और तीन बेटियों पर जमीन के बदले रेलवे में नौकरी देने के मामले में गिरफ्तारी की तलवार लटकी है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उनके विधायक भाई बसंत सोरेन सहित पूरे परिवार पर खनन से लेकर आय से अधिक संपत्ति के मामले में केंद्रीय एजेंसियों का शिकंजा कसा है। विपक्ष का संभवत: कोई भी नेता ऐसा नहीं है, जो किसी न किसी मुकदमे में नहीं फंसा है। आने वाले दिनों में सबकी मुश्किलें बढऩे वाली हैं और राहत के लिए सबकी दौड़ अदालत तक लगने वाली है। सोचें, विपक्ष के नेता चुनाव लड़ेंगे या अपने मुकदमे लड़ेंगे और गिरफ्तारी से बचने के लिए जमानत के उपाय करेंगे!

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