10.07.2021,Hamari Choupal
उत्तर प्रदेश में शनिवार को हुए जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कुल 75 में से 67 सीटें जीत ली हैं। उसने उन जिलों में भी अपने प्रतिद्वंद्वियों का कस बल नहीं चलने दिया है, जहां इस चुनाव के वोटरों यानी जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में उसको सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं। उन जिलों में भी, जहां उसे सिर्फ 12 फीसदी वोट मिले थे। ज्ञातव्य है कि हाल में ही सम्पन्न पंचायतों के त्रिस्तरीय चुनाव में जिला पंचायत सदस्यों की लगभग 3000 सीटों में से भाजपा को मात्र 580 यानी महज 25 प्रतिशत सीटें मिली थीं, जबकि 782 सीटें पाकर समाजवादी पार्टी प्रथम स्थान पर रही थी। कांग्रेस को 61 तथा बसपा को 361 सीटें मिली थीं और 1266 सीटों पर अन्य दल व निर्दलीय जीते थे।
उस शिकस्त के बावजूद भाजपा ने जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में अपना परचम लहरा दिया है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस चमत्कार का श्रेय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीतियों को दे रहे हैं तो मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को। यह और बात है कि कई जानकार इस चुनाव को चुनाव से ज्यादा जिला पंचायतों पर भाजपा के कब्जे के ऐसे अभियान के रूप में देख रहे हैं, जिसमें नैतिकता की वर्जनाओं की हदें पार कर दी गईं। कैसे? जानकार कहते हैं कि इससे वाकिफ होने के लिए इतना भर जानना पर्याप्त है कि वोटों की खरीद-फरोख्त के क्रम में एक-एक जिला पंचायत सदस्य के वोट की कीमत खासी वजनदार रही। आरोप है कि जहां महज खरीद-फरोख्त से काम नहीं चला, वहां सत्ता की हनक और सरकारी मशीनरी के नाना दांव आजमाये गये। आरोप है कि कई जिलों में विपक्षी प्रत्याशियों को नामांकन ही नहीं करने दिया गया।
भाजपा की परम्परागत प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी ने इस चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही उसकी शुचिता पर सवाल उठाने शुरू कर दिये थे, जबकि बहुजन समाज पार्टी ने खुद को चुनाव मैदान से ही हटा लिया था। उसकी सुप्रीमो मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं से इस चुनाव में ताकत जाया करने के बजाय विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लग जाने को कहा तो अपनी बात में यह भी जोड़ा था कि यदि यह चुनाव ईमानदारी से लड़ा जाता तो उनकी पार्टी इसे जरूर लड़ती।
लेकिन बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी, जो 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार आने से पहले बारी-बारी से प्रदेश की सत्ता संभाल चुकी हैं, अपनी बारी पर उसके जैसे ही हथकंडे अपनाती रही हैं। मिसाल के तौर पर दिसम्बर, 2010 में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हुए तो प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार थी। तब बसपा ने जिला पंचायत अध्यक्षों के 71 पदों में से 55 जीत लिये थे। उसके 23 प्रत्याशी निर्विरोध जीत गये थे, जबकि इस बार भाजपा के 21 ही निर्विरोध जीते हैं। तब सपा को 10, राष्ट्रीय लोकदल को 2, कांग्रेस को 2, भाजपा को एक पद हासिल हुआ था। एक अन्य पद निर्दलीय के खाते में गया था।
इसी तरह समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार के दौरान सात जनवरी, 2016 को जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हुए, तो सपा ने 74 अध्यक्ष पदों में से 60 जीत लिये। इनमें 36 पर उसने निर्विरोध जीत हासिल की थी। एक माह बाद हुए ब्लाक प्रमुखों के चुनाव में भी कुल 816 सीटों में से सपा ने 623 सीटें जीत ली थीं, जिनमें 385 पर वह निर्विरोध जीती थी। बसपा को 47, भाजपा को 34, कांग्रेस को 10 ब्लाक प्रमुख सीटें मिली थीं। इसीलिए कई प्रेक्षक कहते हैं कि चुनावों में अनैतिक प्रतिद्वंद्विता की आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है। इसलिए प्रेक्षक फिलहाल, इस पर चकित नहीं हैं कि भाजपा ने कैसे अप्रत्याशित जीत हासिल की। अगर वह यह साबित करने के फेर में है कि पंचायतों के त्रिस्तरीय चुनाव में उसकी शिकस्त से प्रदेश में उसकी अलोकप्रियता के जो निष्कर्ष निकाले जा रहे थे, वे सही नहीं हैं तो वह यह भूल रही है कि जिला पंचायत अध्यक्षों के अप्रत्यक्ष चुनाव में जीत दूसरे अप्रत्यक्ष चुनावों की जीत ही तरह किसी पार्टी की जमीनी पकड़ या लोकप्रियता का पैमाना नहीं होती।
उदाहरण के तौर पर 2010 में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में अभूतपूर्व जीत हासिल करने वाली बसपा 2012 के विधानसभा चुनाव में अपनी मायावती सरकार नहीं बचा पाई थी। विधानसभा सीटों के लिहाज से वह तीन अंकों तक भी नहीं पहुंच पायी थी। दरअसल, जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में प्रत्येक जनपद में 40 से 80 के बीच जिला पंचायत सदस्य ही वोट देते हैं। चूंकि वे किसी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर निर्वाचित नहीं होते और न उन पर पार्टी ह्विप लागू होता है, इसलिए उनमें से अधिकांश लोभ-लालच दिये जाने पर दलीय निष्ठा छोड़ देते हैं और आसानी से मैनेज हो जाते हैं। लेकिन विधानसभा के चुनाव में किसी के लिए भी ऐसा करना संभव नहीं होता। शायद यही समय है, जब हमें यह सोचना भी शुरू कर देना चाहिए कि प्रदेश में राजीव गांधी द्वारा अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में प्रवर्तित पंचायती राज ने उस दौर के बाद अब तक कितनी मंजिलें तय कर ली हैं।