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चीनी कर्ज के जाल में फंसता पाक

27.06.2021,Hamari Choupal

 

{जी. पार्थसारथी}

ढाका में आत्मसमर्पण के पांच दशक बाद पाकिस्तानियों ने पाया है कि जिस पश्चिमी पाकिस्तान को बेतरह दबाकर गरीब-गुरबा बना रखा था, वह आज उत्तरोतर गतिशील और सम्पन्नता की ओर उन्मुख है। करीब 16 करोड़ की आबादी वाला बांग्लादेश अब दक्षिण एशिया की फलती-फूलती आर्थिकियों को टक्कर दे रहा है। पिछले दो दशकों से इसकी सालाना आर्थिक विकास दर 6 प्रतिशत बनी हुई है। यहां तक कि कोविड महामारी जैसी वैश्विक चुनौती के बावजूद एशियन विकास बैंक का अनुमान है कि बांग्लादेश की आर्थिक वृद्धि दर वर्ष 2021 में 6.8 फीसदी और 2022 में 7.2 प्रतिशत रहेगी। जबकि पाकिस्तान, जो अपने इस पूर्व हिस्से को सताने में परपीड़क आनंद लेता था, आज खुद विदेशी खैरात पर निर्भर है। वैश्विक महामारी आने से पहले वर्षों में उसकी वार्षिक आर्थिक वृद्धि दर 3.5 फीसदी के करीब थी।

बांग्लादेश अन्य सूचकांकों में भी पाकिस्तान से काफी आगे है, मसलन मानव विकास, महिला साक्षरता और शिक्षा। कुल 45 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार के साथ बांग्लादेश बहुत अच्छी स्थिति में है और हाल ही में श्रीलंका के साथ 20 करोड़ डॉलर मूल्य की मुद्राओं का आदान-प्रदान किया है। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंगर ने कभी बांग्लादेश के जन्म के समय उसका भविष्य ‘बास्केट केसÓ (दानपात्र) बने रहना बताया था यानी जो अधिकाशंत: विदेशी खैरातों पर पलेगा, शायद अब किसिंगर अपनी अभद्र टिप्पणी में सुधार करना चाहेंगे! हमने देखा है कि म्यांमार से आए लाखों रोहिंग्या शरणर्थियों की देखभाल करने में कोर-कसर नहीं छोडऩे वाले बांग्लादेश ने आर्थिक तौर पर पाकिस्तान को पछाड़ दिया है।

इसकी बनिस्बत, पाकिस्तान के संबंध अपने लगभग तमाम पड़ोसी मुल्कों के साथ असहज हैं, खासकर भारत और अफगानिस्तान के साथ। पाकिस्तान द्वारा ईरान के असंतुष्ट तत्वों की सीमा-पारीय मदद करने की वजह से वह भी उससे खासा नाराज़ है। अब पाकिस्तान न केवल आर्थिक रूप से बांग्लादेश से पिछड़ चुका है, बल्कि खुद एक अतंर्राष्ट्रीय ‘बास्केट केसÓ बन चुका है, जो आज विश्व मुद्रा कोष, विश्व बैंक, एशियन विकास बैंक और अपने सदाबहार दोस्त चीन के आगे पैसे के लिए गिड़गिड़ा रहा है। एक समय था जब अरब की खाड़ी के मुल्क सउदी अरब और यूएई ने पाकिस्तान की काफी आर्थिक मदद की थी लेकिन अब वे भी उसकी हरकतों की वजह से कतराने लगे हैं।

पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान की आर्थिक मुश्किलों में बेतरह इजाफा हुआ है। कुल बाहरी घाटा वर्ष 2013 में 44.35 बिलियन डॉलर से बढ़कर अप्रैल, 2021 में 90.12 बिलियन डॉलर पार कर गया है। चीन से लिया कर्ज हालिया समय में 9.3 फीसदी से बढ़कर अप्रैल, 2021 में 27.4 प्रतिशत पहुंच गया है। यह तो सरकारी आंकड़े हैं, जरूरी नहीं तेजी से बढ़ते चीनी कर्ज की वास्तविक स्थिति दर्शाते हों। पाक-अधिकृत कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके को ग्वादर बंदरगाह से जोडऩे हेतु 65 बिलियन डॉलर की लागत वाला चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा पूरा होने के बाद चीनी कर्ज की मात्रा में बहुत ज्यादा इजाफा हो जाएगा। इस गलियारे की सुविधा पाकिस्तान से ज्यादा खुद चीन लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद होगी, क्योंकि इसको बनाने के लिए उठाया गया भारी भरकम ऋण पाकिस्तान को ही चुकाना है।
ग्वादर अब एक तरह से चीनी बंदरगाह है, यह केवल वक्त की बात है जब चीनी इसको पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लेंगे, अभी भी वहां कौन आ सकता है या नहीं, इसका फैसला वही कर रहे हैं। चीन के लिए ग्वादर सामरिक लिहाज से एक अति महत्वपूर्ण नौसैन्य अड्डा बनने जा रहा है। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा योजना के तहत चीनियों ने गिलगित-बाल्टिस्तान से लेकर ग्वादर तक के मार्ग में पडऩे वाली दीगर अनेकानेक संबंधित परियोजनाएं बनाई हैं, लिहाजा उसकी एवज में यह होना ही था। इस बात का पूरा अंदेशा है कि जिस कदर पाकिस्तान अपनी हैसियत से ज्यादा कर्ज उठा रहा है, उससे ग्वादर का हश्र श्रीलंका के दक्षिणी भाग में स्थित हम्बनतोता बंदरगाह वाला होकर रहेगा। कर्ज चुकता न किए जाने के बदले जो अब लगभग चीन की मल्कियत है।

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का शिलान्यास मई, 2013 में हुआ। ले. जनरल असीम सलीम बाजवा को परियोजना क्रियान्वन समिति का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद उनके परिवार सदस्यों पर विदेशों में काफी धन-जायदाद इक_ा करने के आरोपों से लगभग पूरी परियोजना विवादग्रस्त हो चुकी है। सउदी अरब ने ग्वादर बंदरगाह परियोजना के विकास में लगभग 10 बिलियन डॉलर लगाने की सोची थी लेकिन अब संकेत दिया है कि इस धन का निवेश कराची में किया जाएगा। सउदी अरब को भली-भांति पता है कि चीन उसके मुख्य विरोधी और प्रतिद्वंद्वी मुल्क ईरान में 25 बिलियन डॉलर का भारी-भरकम निवेश करने जा रहा है और ग्वादर बंदरगाह ईरानी तटों के काफी पास है।
उम्मीद थी कि ट्रंप के बाद अमेरिका से बरतने में पाकिस्तान नरमी से पेश आएगा लेकिन इसकी बजाय इमरान खान और उनके वफादार बढ़-चढ़कर बाइडेन प्रशासन की आलोचना और शर्मिंदा करने वाली बयानबाजी दाग रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री बलिन्केन, रक्षा मंत्री ऑस्टिन, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सलिवेन और सीआईए निदेशक विलियम्स बर्नस अपने पाकिस्तानी समकक्षों और सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा से साथ अलग-अलग बैठकें कर रहे हैं। पाकिस्तान ने ‘सख्तीÓ से अमेरिका को बता दिया है कि वह अफगानिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करने को अपनी जमीन का उपयोग अड्डा बनाने के लिए नहीं करने देगा।

पाकिस्तानी सेना जो अमेरिका के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की हिमायती रही है, वह भी हैरान होगी कि आखिर चल क्या रहा है, क्योंकि अमेरिका से आने वाला हर बड़ा ओहदेदार सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा के दरबार में पहुंचकर हाजिरी लगवा रहा है, बाजवा के बारे में समझा जाता है कि उन्हें भी अफगानिस्तान में बनने वाली अस्थिरता और उथल-पुथल पर चिंता है। अमेरिकी फौज के पलायन के बाद अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर पाकिस्तान अपना ध्यान पूरी तरह केंद्रित करेगा। तालिबान एक बार फिर अफगानिस्तान पर अपना राज बनाने को दृढ़ संकल्प हैं। वह सत्ता को किसी और से बांटने को भी राजी नहीं है। हालांकि, तालिबान को काबुल की ओर बढऩे की राह में प्रखर होते प्रतिरोध का सामना करना होगा। गैर-पश्तून इलाकों में भी उसे भारी विरोध मिलेगा। जहां एक ओर पाकिस्तान बिना शक अपने बनाए चेलों तालिबान की पीठ पर हाथ रखेगा, वहीं अफगान सीमा से लगते अपने पश्तून इलाके में आगे इन्हीं तत्वों द्वारा गड़बड़ के लिए तैयार रहना होगा। आरंभिक हिचक के बाद आखिरकार ईरान को भी संघर्ष में कूदना पड़ सकता है।

भारत को सलाह है कि अफगानिस्तान के अपने मित्रों के साथ संपर्क में रहते हुए वहां धधकते गृह युद्ध में सीधी शमूलियत से एक हाथ की दूरी बनाए रखे। इमरान खान के नेतृत्व वाली सरकार से अर्थपूर्ण संबंध बनाना संभव नहीं है। तथापि पाकिस्तान के साथ पर्दे के पीछे वाले संपर्क जारी रखे जाएं। भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आतंकी गुटों के सरगनाओं को जारी पाकिस्तानी समर्थन के मद्देनजर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय कार्यबल (एफएटीएफ) उसे बख्शने न पाए। यह भी देखना होगा कि संसद और मुंबई में आतंकी हमलों के जिम्मेवार मसूद अज़हर और हफीज़ मोहम्मद सईद पाकिस्तान की एफएटीएफ से बैठक से पहले अचानक गायब कैसे हो गए!

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