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उत्तराखंड : संन्तुष्टता से प्रसन्नता और प्रशंसा की प्राप्ति : मनोज श्रीवास्तव

19.06.2021,Hamari Choupal

 

सन्तुष्टता से प्रसन्नता और प्रशंसा की प्राप्ति होती है। संतुष्टता सबसे विशेष गुण है जो चेहरे से चमके वही संतुष्टता है। संतुष्टता तीन स्तर पर जरूरी है, पहला अपने आप से संतुष्ट, दूसरा अपने कार्यों से संतुष्ट और तीसरा सर्वसंबंध और सम्पर्क से संतुष्ट। संतुष्टता की निशानी प्रत्यक्ष रूप में प्रसन्नता के रूप में दिखाई देती है।

संतुष्ट व्यक्ति सदैव प्रसन्नचित रहता है। इस प्रसन्नता के आधार पर प्रत्यक्ष फल के रूप में ऐसे व्यक्ति को सदा स्वतः सर्व से प्रशंसा प्राप्त होती है अर्थात् विशेषता है संतुष्टता और उसकी निशानी है प्रसन्नता तथा उसका प्रत्यक्ष फल है प्रशंसा।

प्रशंसा को अपने प्रसन्नता से ही प्राप्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति सदा स्वयं से संतुष्ट और प्रसन्न हो जाते है उसकी प्रशंसा हर एक व्यक्ति अवश्य करता है।

जीवन में समस्याएं और परिस्थितियां ड्रामा अनुसार आनी ही है। आगे बढ़ने का लक्ष्य रखना अर्थात् परीक्षाओं और समस्याआें का आते रहना है। इस रास्ते को तय करने अनेक नजारे मिलेंगे। नजारे को देखकर रूक जाते है तब मंजिल दूर अनुभव होता है।

इसलिए नजारे को देखते हुए रूके नहीं बल्कि पार करते चले। लेकिन हम नजारे को देखकर यह क्यूं, यह क्या, यह ऐसे नहीं, यह वैसे नहीं इन बातों में फसकर रूक जाते है अर्थात् नजारों से अपना कनेक्शन जोड़ लेते हैं और हर नजारे को करेक्शन में लग जाते है। इससे हमारा लक्ष्य अथवा परमात्मा से कनेक्शन लुज हो जाता है। इसके प्रभाव से हम चलते-चलते रूक जाते है और थक जाते है। थकने के कारण शिकायत करने के कारण असंतुष्ट रहते है।

शिकायत के रूप में कहते है कि पहले क्यो नही बताया ,पहले कहा यह सहज मार्ग है लेकिन यह तो सहन मार्ग है। लेकिन सहन करना ही आगे बढ़ना है। वास्तव में सहन करना तभी होगा जब हम अपनी कमजोरी का अनुभव होगा। इसलिये सहज मार्ग के बजाय सहन करने का अनुभव होता है ।

जब हम ज्ञान ,गुण धारणा मार्ग से असन्तुष्ट रहते है तब स्वयं से असन्तुष्ट हो जाते है। जब हम स्वयं से असन्तुष्ट होते है तब दुसरो से भी असन्तुष्ट हो जाते है।

अव्यक्त बाप दादा मुरली महावाक्य 29 नवम्बर 1978

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