{रेनू शर्मा}
देहरादून ,(हमारी चौपाल,),जून यानी आधा जेठ और आधा आषाड़ का महिना। यह महीना आज के समय में पिकनिक और छुट्टियों का महिना बन गया है। अब लोग गॉव जाते हैं, वहॉ कुछ दिन रूककर आते हैं। गॉव में अधिकांश मकान सीमेण्टेड बन गये हैं। अब तिवारी, या निमदारी जो हैं, वह बहुत पुरानी हैं, जिनमें ऊपर पटाल लगी होती है, वह कम ही नजर आती हैँ, यदि कोई पटाल वाले मकान दिख भी गये तो उनमे अब आधे हिस्से में काले प्लास्टिक की बरसाती बिछी नजर आती है, ताकि बरसात का पानी अंदर ना जाये।
पहले इस जून के महीने में लगभग 10 जून से लेकर 25 जून तक लगभग एक पखवाड़े में गॉव में मकान के पटाले लगाये जाते थे। इस समय राजमिस्त्री मिलने बहुत मुश्किल होते थे। पूरे घर की मरम्मत लगभग 3 से 5 साल में करते थे जिनमे दार, मकोड़ू या धुरपळ कमजोर हो गये हों तो बदले जाते थे। पटाले तो साल या दो साल में पूरे निकालकर दोबारा लगाये जाते थे। बरसात से पहले यह कार्य अनिवार्य रूप से होता था, ताकि बरसात में टपकने से बच जाए।
लोग जो बाहर रहते थे वह विशेष रूप से इन्हीं पटालों को लगाने के लिए घर जाते थे।
पहाड़ के घरों कों कूड़ कहा जाता हैँ जो पत्थर के बने होते थे और छत दोनों ओर ढलाउदार होती थी जिन पर पटाले जो पत्थर के बने होते हैं, वह लगे होते हैँ। पटाले दो प्रकार के होते हैँ, जिनको हमारे यहॉ स्थानीय भाषा में धऽड़ और दुपटा कहा जाता है। धऽड़ वाले पटालों की चौड़ाई ज्यादा होती हैं, जबकि दुपटा लंबे होते हैं। पटाले वाले मकान के लिए दार ( साल की मोटी लकड़ी) जो कि लंबाई में बिछाये जाते हैं, वहीं घुरपळ या मकोड़ू को बीच में बिम की तरह चौड़ाई में रखा जाता है, जो कि साल या देवदार की मजबूत लकड़ी का होता है। इन दारों के बीच उचित दूरी रखी जाती है जो लगभग आधे मीटर से थोड़ा ज्यादा होते हैं। इन दारों के ऊपर फिर लकड़ी के ही फट्टे जिनको पटला कहा जाता है, उन्हें रखा जाता है, फिर पटलों के ऊपर मिट्टी और गारे सहित बिछायी जाती है, फिर उसके बाद धऽड़ वाले पटालों की एक लाईन बिछायी जाती है, वहीं दूसरी लाईन पहले लाईन को आधे दबाते हुए बिछायी जाती है, ताकि वह दब सके, और धऽड़ वाले दो पटालों के जोड़ पर दुपटा वाले पटाल लगाये जाते हैं, ताकि पानी आसानी से बाहर निकल जाये और जोड़ो के रास्ते पानी अंदर ना घुस सके। मिट्टी को छानकर बारीक महीम बनाकर इन पटालों के साईड में एवं दुपटों के साथ लगाया जाता है, ताकि चिपक मजबूत हो। मुडंळू में काफी मोटे पटाले रखी जाती हैं, ताकि वह उड़ ना सके और नीचे वाले पटाले दबे रह सके। इस तरह से पटाले वाले मकानों को सुरक्षित रखा जाता है।
अब इस तरह के कार्य करना दुष्कर हो गया है तो सबने सुविधानुसार इन मकानों का सुदृढीकरण या फिर सीमेंटेड बना दिया है, साथ ही पुराने मकान साझे होने के कारण देखरेख के कारण यह जर्जर हो गये हैं, और अब इनको बनाने वाले जानकार मिस्त्री भी नहीं मिलते हैं, वहीं यह थोड़ा दुष्कर और बार बार किये जाने वाला कार्य है इसलिए लोग अब पक्के सीमेंट के मकान बना रहे हैं।
इन पत्थरों वाले या पटाल वाले मकान गर्मियों और सर्दियों में सामान्य तापमान वाले होते हैं, ना ज्यादा गर्म और न ही ज्यादा ठंडे होते हैं, बल्कि नीचे के तल जिसको उबरा कहा जाता है, पहले वहॉ खिड़की नहीं होने के कारण गुप अंधेरा रहता है, गर्मियों के दिन में तो इन उबरों में एसी की तरह ठंडक रहती थी, यदि दिन में सो गये तो पता ही नहीं चलता था कि शाम भी हो गयी है। दो मंजिले वाले मकानों में निमदारी, तिवारी या डिंडयाली होती है, जिसके हम बरामदा कह सकते हैं, वहीं अंदर के कमरों को मंज्यूळ कहा जाता है। इन मंजयूळ डिंडयाली के ऊपर लकड़ी जो कि हल्दू या साल की होती हैं, वह बिछी होती है। उनके ऊपर लकड़ी की तख्तियॉ जिनको पट्टी कहा जाता है बिछाई होती हैं, इनको हमारे क्षेत्र में स्थानीय भाषा में ढ्यापर कहा जाता है, जहॉ सामान रखा जाता है, यहॉ पर अक्सर भेली, और अन्य जरूरी सामान रखा रहता है, कुछ लोग यहॉ स्योळू, और छिल्ले भी रखते थे, कुछ अन्य सामान।
वर्तमान में इस तरह के मकान बहुत ही कम रह गये हैं, क्योंकि इनको संभालकर रखना चुनौतीपूर्ण हो गया है, हालांकि मजबूति के हिसाब से यह बहुत पक्के होते हैं, आज भी गॉव में कुछ मकान जिनकी औसत आयु लगभग 100 साल से अधिक है। आज के वर्तमान युग में यह प्राचीन वास्तुकला शैली अब विलुप्त होती जा रही है l