भारतीय स्टेट बैंक ने इलेक्ट्रॉल बॉन्ड संबंधी याचिका देकर सुप्रीम कोर्ट के सामने भी अग्निपरीक्षा जैसी स्थिति खड़ी कर दी है। कोर्ट के सामने अब अपने निर्णय की प्रभावशीलता के साथ-साथ अपनी साख की रक्षा करने की भी चुनौती है।
भारतीय स्टेट बैंक ने सुप्रीम कोर्ट से इलेक्ट्रॉल बॉन्ड संबंधी सूचना देने की समय सीमा बढ़ाने की गुजारिश की है। उचित ही इस पर गंभीर सवाल उठाए गए हैँ। सवाल सीधे केंद्र सरकार की मंशा पर हैं। यह मानने का तो कोई आधार नहीं है कि याचिका देने का फैसला स्टेट बैंक ने स्वायत्त रूप से और व्यावहारिक कारणों से लिया। इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स संबंधी मामले पर सुनवाई के दौरान खुद स्टेट बैंक ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि चंदादाताओं का विवरण सील किए लिफाफे में स्टेट बैंक की तयशुदा शाखाओं में रखा गया है।
उसने बताया था कि जब इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स को भुनाया जाएगा, तब उनका पे-इन स्लिप भी सील्ड कवर में रखा जाएगा और उसे स्टेट बैंक की मुंबई शाखा को भेज दिया जाएगा। इसलिए यह तर्क नहीं टिकता कि स्टेट बैंक को चंदादाताओं की सूची तैयार करने और उसका मिलान करने के लिए और तीन महीने और चाहिए। आम समझ है कि यह ब्योरा पेश करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने बैंक को पर्याप्त समय दिया है।
मुद्दा इसलिए गरमा गया है, क्योंकि स्टेट बैंक ने यह सूचना देने के लिए 30 जून तक का समय मांगा है। उसके पहले देश में आम चुनाव निपट चुका होगा। जबकि कोर्ट की तरफ से दी गई समयसीमा यानी इसी महीने जानकारी सामने आने पर संबंधित सूचना चुनाव के दौरान चर्चा का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन सकती है। आखिर इससे पता चलेगा कि किस कारोबारी घराने ने किसे कितना चंदा दिया। उसके बाद सिविल सोसायटी उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक यह आकलन करने की स्थिति में होगी कि क्या भाजपा को चंदा देने वालों को केंद्र ने कोई खास लाभ पहुंचाया है।
इस तरह इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स को लेकर उठे कथित लेन-देन के संदेह का निवारण हो सकेगा। अगर सरकार का दामन पाक-साफ है, तो उसे यह सूचना यथाशीघ्र सार्वजनिक करनी चाहिए। वरना, इस योजना से संबंधित संदेह और गहराएंगे। दरअसल, स्टेट बैंक ने यह याचिका देकर सुप्रीम कोर्ट के सामने भी अग्निपरीक्षा जैसी स्थिति खड़ी कर दी है। कोर्ट के सामने अब अपने निर्णय की प्रभावशीलता के साथ-साथ अपनी साख की रक्षा करने की भी चुनौती है।
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