HamariChoupal,30,09,2023
पहले भी ऐसा होता था लेकिन वह अपवाद था कि सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जाए। अब भारतीय जनता पार्टी ने इस अपवाद को नियम बना दिया है। वह सभी राज्यों में सांसदों को विधानसभा के चुनाव लड़ाती है। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री भी विधानसभा का चुनाव लड़ते हैं। अभी मध्य प्रदेश में भाजपा ने तीन केंद्रीय मंत्रियों- नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते को चुनाव मैदान में उतारा है। हैरानी नहीं होगी अगर चौथे मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी चुनाव में उतारा जाए। इससे पहले त्रिपुरा में केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक को चुनाव लड़ाया गया था। उससे भी पहले 2021 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में केंद्रीय मंत्री निशीथ प्रमाणिक और बाबुल सुप्रियो को चुनाव लड़ाया था। हालांकि बाबुल सुप्रियो चुनाव हार गए थे।
अब कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी राजस्थान में भी कुछ केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा का चुनाव लड़ाएगी। केंद्र जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल दोनों के नाम की चर्चा है। तेलंगाना में भाजपा के चार सांसद हैं, जिनमें से एक जी किशन रेड्डी केंद्र सरकार में मंत्री हैं। बताया जा रहा है कि भाजपा ने केंद्रीय मंत्री सहित अपने चारों सांसदों को तेलंगाना विधानसभा का चुनाव लड़ाने का फैसला किया है। खबरों के मुताबिक मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के परिवार के सदस्य, जहां से चुनाव लड़ेंगे वहां भाजपा अपने सांसदों को मैदान में उतारेगी। पहले भी पार्टियां विधानसभा चुनाव में अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए बड़े चेहरों को मैदान में उतारती थी। इसलिए कई बार सांसदों को भी चुनाव लड़ाया जाता था। लेकिन यह काम तब होता था जब पार्टियों के पास कोई करिश्माई नेतृत्व नहीं होता था या जब पार्टी मुश्किल मुकाबले में फंसी होती थी। तभी हैरानी है कि भाजपा के पास नरेंद्र मोदी का चेहरा है और पार्टी मान रही है कि कहीं भी उसकी लड़ाई नहीं है, वह आराम से चुनाव जीत रही है तब भी इतनी बड़ी संख्या में सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव लड़ा रही है। बहरहाल, सांसदों या केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा का चुनाव लड़ाने को लेकर कुछ नैतिक व राजनीतिक सवाल हैं, जिनका जवाब पार्टियों को देना चाहिए।
पहले तो सांसदों के विधानसभा का चुनाव लडऩा ही सवाल खड़े करता है। एक सांसद अपने लोकसभा क्षेत्र की पांच या छह विधानसभा सीटों का प्रतिनिधित्व करता है। उसको एक विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाने की क्या तुक है? क्या इससे पक्षपात की संभावना नहीं बनती है? यह हो सकता है कि सांसदों को अंदाजा हो कि उनको विधानसभा का चुनाव लडऩा पड़ सकता है तो वे पहले से ही किसी खास विधानसभा क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देते हों। यह भी हो सकता है कि अगर चुनाव लड़ रहा सांसद विधानसभा का चुनाव हार जाए तो बतौर सांसद वह उस क्षेत्र की जनता से बदला लेने के लिए उस विधानसभा क्षेत्र में काम न कराए या अपनी निधि का पैसा वहां खर्च न करें? इस तरह यह एक तरह के पक्षपात की संभावना को जन्म देता है। पांच या छह सीटों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी सांसद को विधानसभा का चुनाव लड़ाने से यह मैसेज तो बनता है कि पार्टी ने बड़ा चेहरा उतारा है लेकिन इससे उस सांसद का कद छोटा होता है।
दूसरा सवाल राजनीतिक नैतिकता को लेकर है। अगर कोई सांसद विधानसभा का चुनाव जीत जाता है तो इसका मतलब है कि किसी एक सीट पर निश्चित रूप से उपचुनाव होगा। क्योंकि या तो वह लोकसभा की सीट छोड़ेगा या विधानसभा का। यह सिर्फ अभी के चुनाव की बात नहीं है। अभी लोकसभा का कार्यकाल बहुत कम बचा हुआ है इसलिए हो सकता है कि विधायक बनने के बाद कोई सांसद इस्तीफा दे तो उपचुनाव नहीं कराया जाए। लेकिन आमतौर पर अगर कोई नेता लोकसभा और विधानसभा दोनों सीटों पर जीता हुआ होता है तो वह एक सीट से इस्तीफा देता है और वहां उपचुनाव होता है। जैसा कि पश्चिम बंगाल में निशीथ प्रमाणिक और जगन्नाथ सरकार की सीट पर हुआ या त्रिपुरा में प्रतिमा भौमिक की सीट पर हुआ। इस तरह के उप चुनाव के लिए आचार संहिता लगती है, केंद्रीय बलों की तैनाती होती है, बड़े नेता कामकाज छोड़ कर प्रचार करते हैं और चुनाव आयोग का बेवजह खर्च बढ़ता है।
सोचें, एक तरफ पूरे देश में एक चुनाव के लिए विधानसभा और लोकसभा का कार्यकाल फिक्स्ड करने पर विचार हो रहा है तो दूसरी ओर सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा रहा है! केंद्र सरकार ने एक देश, एक चुनाव पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में आठ सदस्यों की एक कमेटी बनाई है। सबको अंदाजा है कि एक देश, एक चुनाव का कोई भी सिद्धांत तभी कामयाब हो सकता है, जब लोकसभा और विधानसभा का कार्यकाल फिक्स्ड किया जाए। यानी तय कर दिया जाए कि पांच साल के भीतर किसी हाल में लोकसभा और विधानसभा भंग नहीं होगी ताकि सरकार गिरने पर मध्यावधि चुनाव न कराना पड़े। ऐसा एक कानून ब्रिटेन की संसद ने पास किया था लेकिन 2017 में उसे बदल दिया गया। बहरहाल, एक तरफ फिक्स्ड कार्यकाल की बात हो रही है तो दूसरी ओर लोकसभा के सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा रहा है! यह तो सीधे सीधे उपचुनाव की संभावना पैदा करने वाला कदम है!
आखिर में एक बड़ा सवाल केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव लड़ाने पर है। अगर कोई केंद्रीय मंत्री विधानसभा का चुनाव लड़ता है तो यह प्राकृतिक न्याय के विरूद्ध होता है। इससे चुनाव का मैदान बराबरी का मैदान नहीं रह जाता है। केंद्रीय मंत्री देश के 140 करोड़ लोगों का मंत्री होता है। उसका कद और प्रोटोकॉल बहुत बड़ा होता है। उसकी सुरक्षा और अन्य तामझाम बहुत बड़ा होता है। जबकि दूसरी ओर उसके खिलाफ लडऩे वाला नेता किसी पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता हो सकता है। अगर वह राज्य का मंत्री भी है तब भी उसका दर्जा बहुत नीचे है। दूसरे उम्मीदवार के प्रति स्थानीय प्रशासन, पुलिस और चुनाव आयोग के अधिकारियों-कर्मचारियों का रवैया वही नहीं रहेगा, जो केंद्रीय मंत्री के प्रति होगा। कोई कुछ भी दावा करे लेकिन इससे स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की संभावना प्रभावित होती है। तभी दुनिया के कई देशों में आम चुनाव से पहले सरकार को हटा दिया जाता है और कोई कार्यवाहक सरकार चुनाव कराती है। भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं है। फिर भी आम चुनावों की बात अलग है लेकिन अगर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपने किसी मंत्री को विधानसभा का चुनाव लड़ाती है तो उसे कम से कम मंत्री पद से हटा कर चुनाव में भेजना चाहिए।