HamariChoupal,25,04,2023
अजय दीक्षित
अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पूर्व समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच दलित-मुस्लिम वोटों को लेकर रार बढऩे लगी है, जिस तरह से दोनों दलों के नेता एक-दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश में लगे हैं, उससे तो यही लगता है कि अब शायद ही सपा-बसपा प्रमुख एक साथ 2019 की तरह लोकसभा चुनाव लडऩा तो दूर एक मंच पर भी खड़े नजर नहीं आएंगे। बसपा प्रमुख मायावती समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक में तो समाजवादी प्रमुख बसपा के गैर जाटव दलितों पर नजर जमाये हुए हैं। दरअसल, बसपा सुप्रीमो मायावती दलितों में जाटव बिरादरी से आती हैं तो सपा प्रमुख अखिलेश की सबसे मजबूत पकड़ यादव वोटरों पर हैं।
सपा-बसपा की सियासी जंग में भाजपा तीसरा कोण बनी हुई। है। उसकी भी नजर गैर जाटव दलितों और गैर यादव पिछड़ों दोनों पर लगी हुई है। दलितों में जाटव की आबादी अधिक होने के साथ समाज में सबसे प्रभावशाली भी है। इसीलिए सपा गैर-जाटव दलित वोट बैंक को लुभाने की कोशिश में लगी हुई है। इस वोट बैंक पर भाजपा की भी नजर है। साथ ही सपा मायावती को सीधे निशाना साधने से बच रही है। हालांकि वह यह संदेश देने की कोशिश जरूर कर रही है कि मायावती परोक्ष रूप से भाजपा को फायदा पहुंचा रही हैं। सपा के इस दोहरे रवैये से बसपा सुप्रीमो का पारा चढ़ा हुआ है। उस पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा कांशीराम जयंती मनाने ने आग में घी डालने का काम किया। अखिलेश यादव के दांव से तिलमिलाई मायावती ने उनके खिलाफ गेस्ट हाउस काण्ड वाला इमोशनल कार्ड चला है ।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें दांव पर हैं। वैसे बता दें कि जाटव समाज तो अभी भी मायावती के साथ है। पर पासी, वाल्मीकि, धोबी और सोनकर जैसे दलित जाति के लोग कहीं समाजवादी पार्टी के साथ तो कहीं बीजेपी के साथ हैं। अखिलेश ये साबित करने में जुटे हैं कि बीजेपी को हराने के लिए दलित अब मायावती नहीं उनका समर्थन करें। इसीलिए अखिलेश कभी कहते हैं कि मैं शूद्र हूँ, फिर आगे कहते हैं कि बीएसपी के उम्मीदवारों की लिस्ट तो बीजेपी ऑफिस से आती है। अखिलेश अब मायावती को बीजेपी की बी टीम बताने में लगे हैं। अगर इसमें वे कामयाब रहे तो फिर एंटी बीजेपी दलित वोट उनके साथ जुड़ सकता है। वैसे अखिलेश यादव ने यही प्रयोग 2019 के लोकसभा चुनाव में किया था। बीएसपी के साथ गठबंधन कर उन्होंने बड़ा दांव चला था। इससे समाजवादी पार्टी को तो कोई फायदा नहीं हुआ।
लोकसभा में उनके सांसदों की संख्या 5 ही रही। पर मायावती को इसका फायदा मिल गया। 2014 के चुनाव में बीएसपी का तो खाता तक नहीं खुला था। पर समाजवादी पार्टी के गठबंधन में उसने 10 सीटें जीत लीं थीं। बहरहाल, उत्तर प्रदेश की राजनीति में यूं तो यादव और गैर यादव ओबीसी की अहमियत हमेशा रही है, लेकिन कुछ वर्षों पूर्व तक ओबीसी को इस तरह अलग-अलग करके नहीं देखा जाता था। भाजपा ने सबसे पहली बार यूपी में कुर्मी जाति के नेता कल्याण सिंह को आगे करके पिछड़ों में यादव के राजनैतिक वर्चस्व को तोडऩे का काम किया था, तभी वह 1991 में सत्तारुढ़ हुई तो कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था। इसी के बाद समय-समय पर गैर यादव ओबीसी मुलायम सिंह दूसरी बार 1993 में मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन यह कोशिश बहुत लम्बी नहीं चल पाई। इसी बीच स्टेट गेस्ट हाउस कांड हो गया, जिसमें मायावती को जान के लाले पड़ गए और भाजपा नेताओं ने उन्हें बचाने का काम किया था। इसके 26 वर्षों बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन हुआ था, जो कुछ माह बाद ही टूट गया था। आज स्थिति यह है कि यूपी में बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव का ध्यान मोदी के रथ को रोकने से अधिक अपनी आपसी दुश्मनी निपटाने पर ज्यादा है, जिसका फायदा उठाने का शायद ही कोई मौका भाजपा छोड़ेगी ।