07.07.2021,Hamari Choupal
कोई प्रशंसा करे और हम मुस्करायें, इसको सहनशीलता नहीं कहते हैं। लेकिन कोई दुश्मन बन, क्रेाधित होकर अपशब्दों की वर्षा करे, ऐसे समय पर हम सदा मुस्कराते रहें, इसे सहनशीलता कहते हैं। दुश्मन से भी कन्ट्रोल रहकर मान-मर्यादा के साथ सम्पर्क में आना सहनशीलता कहलाता है। कितनी भी बड़ी बात हो, पहाड़ समान समस्या हो, तूफान, विघ्न हो लेकिन इसे छोटा सा खिलौना समझना अर्थात् बढ़ी बात को हल्का बनाकर स्वयं भी हल्के रहना और दूसरों को भी हल्का बनाना, इसको कहते हैं सहनशीलता।
छोटे से पत्थर को पहाड़ नहीे बल्कि पहाड़ को गेंद बनाना है। अर्थात् विस्तार को सार में लाना सहनशीलता है। विघ्नों को, समस्याओं को अपने मन में विस्तार देना अथवा दूसरों के सामने विस्तार देना अर्थात छोटी बात को पहाड़ बनाना है। इसलिए किसी बात के विस्तार में जाके सार में रहें और सार में रहने के लिए फुल स्टाॅप से बिन्दी लगायें और बिन्दी बनकर आगे बढ़ जायें, इस विधि को कहते हैं- विस्तार से सार में आना।
सहनशील श्रेष्ठ व्यक्ति ऐसे ही सदैव ज्ञान योग के सार में स्थित रहते हैं और ऐसे विस्तार को, समस्या को, विघ्नों को सार में ले आते हैं। जैसे लम्बा रास्ता पार करने में समय और शक्तियाँ दोनों समाप्त हो जाती हैं, क्योंकि लम्बे रास्ते में समय और शक्तियाँ अधिक यूज होते हैं। इसी प्रकार विस्तार है लम्बा रास्ता पार करना और सार और शार्टकट रास्ता पार करना। रास्ते को पार दोनों ही व्यक्ति करते हैं, लेकिन शार्टकट में करने वाले के पास समय और शक्तियों की बचत हो जाती है जिसके कारण निराश नहीं होते हैं और सदा मौज में रहते हुए मुस्कराते रहते हैं। इसकों कहा जाता है सहनशीलता।
सहनशीलता की शक्ति वाला व्यक्ति कभी घबरायेगा नहीं और क्या और क्यों के प्रश्नों में नहीं उलझेगा। सहनशीलता की शक्ति वाला व्यक्ति ज्ञान की गहराई में जायेगा। घबराने वाला व्यक्ति कभी गहराई में नहीं जा सकता है। सार में रहने वाला व्यक्ति भरपूर रहेगा इसलिए भरपूर सम्पन्न चीजों की गहराई होती है।
इसके विपरीत विस्तार में रहने वाला व्यक्ति खाली होता है। इसलिए खाली चीज सदैव उछलती रहती है। खाली और खोखला व्यक्ति संकल्पों में भी उछलेगा और वाणी में भी उछलेगा। विस्तार वाला व्यक्ति हमेशा प्रश्नों में उलझा रहता है, यह क्यों, यह क्या, ऐसा नहीं, वैसा नहीं, बल्कि ऐसा होना चाहिए। ऐसे ही वह संकल्पों में भी उछलता रहेगा और वाणी में भी सबके आगे उछलता रहेगा। जो हद से ज्यादा उछलता है वह हाॅंप जाता है। स्वयं में उछलता है, स्वयं ही उछलता है और स्वयं ही फिर थक जाता है, लेकिन सहनशील व्यक्ति इन सभी बातों से बच जाता है। इसलिए सहनशील व्यक्ति सदैव मौज में रहता है और उछलता नहीं है बल्कि उड़ता है।
दिल से मौज में रहना है ना कि स्थूल रूप से मौज में रहना है। दिल की मौज में रहने वाला किसी परिस्थिति में मूँझने को मौज में बदल देता है, लेकिन मूँझने वाला व्यक्ति अच्छे साधन रहते हुए भी साधनों का मौज नहीं ले पाता है। सदैव प्रश्नों में रहता है, यह कैसे होगा, ऐसे नहीं ऐसे होगा। इन कारणों से वह स्वयं मूँझता है और दूसरों को भी मूँझा देता है।
जो व्यक्ति अच्छी बातों में मूँझेगा वह घबराने वाली बातों में भी मूँझेगा। क्योंकि वृत्ति ही मूँझी हुई है। जब मन मूँझा हुआ है तो स्वतः ही इस वृत्ति का प्रभाव दृष्टि पर होता है और इस प्रभाव से सृष्टि भी मूँझी हुई दिखाई देती है। इन सभी का आधार सहनशीलता की कमी है।
अचल-अडोल अर्थात् कैसी भी परिस्थिति आ जाय लेकिन स्थिति डग-मग वाली न हो। जहाँ सर्वशक्तिमान की सर्व शक्तियाँ हैं, वहाँ अचल-अडोल रहेंगे। सदैव एक रस स्थिति में रहेंगे और हल-चल में नहीं आयेंगे। जब एक रस स्थिति होती है तब दूसरे रसों में बुद्धि नहीं जाती है। एक रस स्थिति का अनुभव इसको कहा जाता है, एक रस अर्थात अचल-अडोल स्थिति यहाँ कोई मेरा पन नहीं होगा
अव्यक्त बाप दादा, मुरली महावाक्य 30 अगस्त, 1988