तीन दशक पहले भारत में मंडल बनाम कमंडल की राजनीति शुरू हुई थी। हैरानी की बात है कि अब भी यह उत्तर भारत की राजनीति का कोर तत्व है। धर्म या हिंदुत्व की राजनीति जहां भाजपा की ताकत है वही जाति या आरक्षण की राजनीति उसकी कमजोरी। यह सिर्फ उत्तर भारत की परिघटना नहीं है, बल्कि जहां भी जाति और आरक्षण का मुद्दा राजनीति पर हावी होता है वहां भाजपा को नुकसान होता है। कर्नाटक में हाल में हुए विधानसभा चुनाव की मिसाल से इसे समझा जा सकता है। वहां चुनाव से पहले भाजपा ने आरक्षण की राजनीति में हाथ डाला था। उसने अनुसूचित जाति के आरक्षण के भीतर एक आरक्षण का प्रावधान किया था और चार फीसदी मुस्लिम आरक्षण खत्म करके उसे राज्य की दो सबसे ताकतवर जातियों- वोक्कालिगा और लिंगायत में बांट दिया था। ये दोनों दांव भाजपा पर बहुत भारी पड़े हैं और ऐसा भाजपा के ही नेता कह रहे हैं।
पिछले दिनों कर्नाटक में हार की समीक्षा के लिए प्रदेश भाजपा के नेताओं की एक बड़ी बैठक हुई थी, जिसमें राज्य के प्रभारी अरुण सिंह, राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि, पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा व बसवराज बोम्मई और प्रदेश अध्यक्ष नलिन कुमार कतील शामिल थे। इसमें जीते हुए सभी 66 विधायकों और हारे हुए प्रतिनिधियों को बुलाया गया था। सबने एक स्वर में कहा कि आरक्षण में छेड़छाड़ से नुकसान हुआ। दलित आरक्षण के भीतर एक आरक्षण बनवाने से बंजारा समुदाय पूरी तरह से नाराज हुआ, जिसका असर 42 सीटों पर पड़ा और वोक्कालिगा व लिंगायत का आरक्षण बढ़ाने से ओबीसी पूरी तरह से कट गया। उसने भाजपा को छोड़ दिया। सोचें, कर्नाटक जैसे विकसित राज्य में भी आरक्षण का मुद्दा चुनाव में इतना असर डाल सकता है तो उत्तर भारत के राज्यों के बारे में क्या कहा जा सकता है, जहां पूरी राजनीति ही आरक्षण के ईर्द-गिर्द होती है!
इससे पहले देखें तो 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने का बयान दिया था, जिसका चुनावी मुद्दा बना और भाजपा बुरी तरह से हारी। एक बार फिर 2024 के चुनाव से पहले आरक्षण का मुद्दा बन रहा है। बिहार में जातीय जनगणना चल रही है, जिस पर हाई कोर्ट ने रोक लगाई है। लेकिन बिहार की दोनों मंडलवादी पार्टियों- राजद और जदयू के साथ साथ उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी ने भी साफ कर दिया है कि जातीय जनगणना जरूरी है और इसके नतीजों के आधार पर हर जाति को उसकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलना चाहिए। इन तीनों पार्टियों ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने का दांव चला है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अब तक जाति और आरक्षण की राजनीति से दूरी रखने वाली कांग्रेस भी इसमें शामिल है। कर्नाटक में राहुल गांधी ने ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा दिया। यह सातवें, आठवें दशक में लगने वाले नारों का दोहराव है। तब नारा लगता था, ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ या ‘जिसकी जितना संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’।
सो, हिंदी पट्टी यानी उत्तर भारत के राज्यों में मजबूत आधार वाली पार्टियों- कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद और जदयू ने जातिगत जनगणना और जातियों की संख्या के अनुपात में आरक्षण का मुद्दा बनाया है। भाजपा के लिए यह पूरी तरह से अनजाना मैदान है। वह इसमें घुसने के खतरे जानती है। जिस तरह से बाकी पार्टियां धर्म या हिंदुत्व की राजनीति में घुस कर भाजपा से नहीं लड़ सकती हैं वैसे ही भाजपा जाति की राजनीति में घुसेगी तो उसे नुकसान होगा। ध्यान रहे हिंदी पट्टी के सभी राज्यों में एक जैसी जातिगत संरचना है। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि बड़े राज्यों में अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी 50 फीसदी से थोड़ा ऊपर नीचे है। इन राज्यों में पिछले दो चुनावों में भाजपा को प्रचंड जनादेश मिला है। ज्यादातर राज्यों में लगभग सभी सीटें भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टियों ने जीती थीं। दस साल तक हिंदुत्व की राजनीति का समर्थन करने के बाद इन जातियों के मन में यह जरूर होगा कि उनको क्या हासिल हुआ है और यह सोच भी होगी कि जाति की राजनीति से उनको क्या हासिल हो सकता है। अगर उनको लगता है कि जातीय जनगणना और उस पर आधारित आरक्षण नीति सत्ता पर उनका वर्चस्व बनाने वाली और राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाने वाली होगी तो वे इस बारे में गंभीरता से विचार करेंगे। पिछड़ी व अतिपिछड़ी जातियों को बिहार में नीतीश-तेजस्वी के राज और उत्तर प्रदेश में योगी के राज का फर्क भी दिख रहा होगा। इसलिए जातिगत राजनीति अगले चुनाव में एक महत्वपूर्ण फैक्टर की तरह काम करेगी।