पंकज चतुर्वेदी
न तो अब खेतों में कोयल की कूक सुनाई देती है और न ही सावन के झूले पड़ते हैं. यदि फसल को किसी आपदा का ग्रहण लग जाए, तो अतिरिक्त आय का जरिया होने वाले फल भी गायब हैं. अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका ‘नेचर सस्टैनबिलिटी’ में हाल में प्रकाशित आलेख बताता है कि भारत में खेतों में पेड़ लगाने की परंपरा समाप्त हो रही है. कृषि-वानिकी का मेलजोल कभी भारत के किसानों की ताकत था.
कई पर्व-त्योहार, लोकाचार, गीत-संगीत खेतों में खड़े पेड़ों के इर्द गिर्द रहे हैं. मार्टिन ब्रांट , दिमित्री गोमिंस्की, फ्लोरियन रेनर, अंकित करिरिया , वेंकन्ना बाबू गुथुला, फिलिप सियाइस , जियाओये टोंग , वेनमिन झांग , धनपाल गोविंदराजुलु , डैनियल ऑर्टिज-गोंजालो और रासमस फेंशोल्टन के बड़े दल ने भारत के विभिन्न हिस्सों में जाकर पाया कि अब खेत किनारे छाया मिलना मुश्किल है.
इसके कई विषम परिणाम खेत झेल रहा है. जब बढ़ता तापमान गंभीर समस्या के रूप में सामने है और सभी जानते हैं कि धरती पर अधिक से अधिक हरियाली की छतरी ही इससे बचाव का जरिया है, ऐसे में यह शोध गंभीर चेतावनी है कि बीते पांच वर्षों में हमारे खेतों से 53 लाख फलदार व छायादार पेड़ गायब हो गये हैं.
इनमें नीम, जामुन, महुआ और कटहल जैसे पेड़ प्रमुख हैं. इन शोधकर्ताओं ने भारत के खेतों में मौजूद 60 करोड़ पेड़ों का नक्शा तैयार किया और लगातार दस साल उनकी निगरानी की. कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार, देश में प्रति हेक्टेयर पेड़ों की औसत संख्या 0.6 दर्ज की गयी. इनका सबसे ज्यादा घनत्व उत्तर-पश्चिमी भारत में राजस्थान और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में छत्तीसगढ़ में दर्ज किया गया है.
यहां पेड़ों की मौजूदगी प्रति हेक्टेयर 22 तक दर्ज की गयी. रिपोर्ट बताती है कि खेतों में सबसे अधिक पेड़ उजाड़ना में तेलंगाना और महाराष्ट्र अव्वल रहे हैं. साल 2010-11 में दर्ज किये गये पेड़ों में से करीब 11 फीसदी बड़े छायादार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके थे. बहुत जगहों पर तो खेतों में मौजूद आधे पेड़ गायब हो चुके हैं. यह भी पता चला है कि 2018 से 2022 के बीच करीब 53 लाख पेड़ खेतों से अदृश्य थे, यानी इस दौरान हर किलोमीटर क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले.
वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किलोमीटर क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं. यह विचार करना होगा कि आखिर किसान ने अपने खेतों से पेड़ों को उजाड़ा क्यों? किसान भलीभांति यह जानता है कि खेत पर छायादार पेड़ होने का अर्थ है पानी संचयन, पत्ते और पंछियों की बीट से निशुल्क कीमती खाद, मिट्टी के मजबूत पकड़ और सबसे बड़ी बात- खेत में हर समय किसी बड़े-बूढ़े के बने रहने का एहसास. इन पेड़ों पर बसेरा करने वाले पक्षी कीट-पतंगों से फसलों की रक्षा करते थे. फसलों को नुकसान करने वाले कीट सबसे पहले मेड़ के पेड़ पर ही बैठते हैं.
उन पेड़ों पर दवाओं को छिड़काव कर दिया जाए, तो फसलों पर छिड़काव करने से बचत हो सकती है. जलावन, फल-फूल से अतिरिक्त आय तो है ही.
फिर भी नीम, महुआ, जामुन, कटहल, खेजड़ी (शमी), बबूल, शीशम, करोई, नारियल आदि जैसे बहुउद्देशीय पेड़ों का काटा जाना, जिनका मुकुट 67 वर्ग मीटर या उससे अधिक था, किसान की किसी बड़ी मजबूरी की तरफ इशारा करता है. यह भी है कि खेती का रकबा तेजी से कम होता जा रहा है. एक तो जमीन का बंटवारा हुआ, फिर लोगों ने व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए खेतों को बेचा. साल 1970-71 तक देश के आधे किसान सीमांत थे, यानी उनके पास एक हेक्टेयर या उससे कम जमीन थी. साल 2015-16 आते-आते सीमांत किसान बढ़कर 68 प्रतिशत हो गये हैं. अनुमान है कि आज इनकी संख्या 75 फीसदी है.
सरकारी आंकड़ा कहता है कि सीमांत किसानों की औसत खेती 0.4 हेक्टेयर से घटकर 0.38 हेक्टेयर रह गयी है. ऐसा ही छोटे, अर्ध मध्यम और मझोले किसान के साथ हुआ. कम जोत का सीधा असर किसानों की आय पर पड़ा है. अब वह जमीन के छोटे से टुकड़े पर अधिक कमाई चाहता है, तो उसने पहले खेत की चौड़ी मेढ़ को ही तोड़ डाला. इसके चलते वहां लगे पेड़ कटे. उसे लगा कि पेड़ के कारण हल चलाने लायक भूमि और सिकुड़ रही है, तो उसने पेड़ पर कुल्हाड़ी चला दी. इस लकड़ी से उसे तात्कालिक कुछ पैसा भी मिल गया. इस तरह घटती जोत का सीधा असर खेत में खड़े पेड़ों पर पड़ा.
सरकार खेतों में पेड़ लगाने की योजना, सब्सिडी के पोस्टर छापती रही और किसान अपने कम होते रकबे को थोड़ा सा बढ़ाने की फिराक में धरती के शृंगार पेड़ों को उजाड़ता रहा. बड़े स्तर पर धान बोने के चस्के ने भी बड़े पेड़ों को नुकसान पहुंचाया. साथ ही, खेतों में मशीनों के बढ़ते इस्तेमाल ने भी पेड़ों की बलि ली. कई बार भारी मशीनें खेत की पतली पगडंडी से लाने में पेड़ आड़े आते थे, तो तात्कालिक लाभ के लिए उन्हें काट दिया गया. खेत तो कम होंगे ही, लेकिन पेड़ों का कम होना मानवीय अस्तित्व पर बड़े संकट का आमंत्रण है. आज समय की मांग है कि खेतों के आसपास सामुदायिक वानिकी को विकसित किया जाए, जिससे जमीन की उर्वरा, धरती की कोख का पानी और हरियाली का साया बना रहे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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