एक साथ इतने सारे मामलों के सामने आने के बावजूद ये गड़बडिय़ां मुद्दा नहीं बनी हैं। इसका निहितार्थ साफ है। मुद्दा भ्रष्टाचार नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार का नैरेटिव बनता है, जिसे निहित-स्वार्थी मीडिया अपने राजनीतिक रुझान और हितों के मुताबिक गढ़ता है।
दशक भर पहले नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्टों को लेकर मीडिया ने भ्रष्टाचार का ऐसा नैरेटिव बनाया था, जिससे तत्कालीन यूपीए सरकार की जमीन खिसक गई थी। उसमें कथित कोयला घोटाले संबंधी एक खबर तो ऐसी रिपोर्ट पर आधारित थी, जिसे सीएजी के अंदरूनी विचार-विमर्श के लिए तैयार दस्तावेज से उठा लिया गया था। उसके आधार पर आज भी संभवत: बहुत से लोग मानते हों कि वह कथित घोटाला दस लाख करोड़ रुपए का था, जबकि अपनी अंतिम रिपोर्ट में सीएजी उस मामले में प्रक्रियागत गड़बडिय़ों के कारण सरकारी खजाने को एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये का अनुमानित नुकसान होने की बात ही कह पाया। बहरहाल, अब एक के बाद एक कई घोटालों की तरफ सीएजी ने इशारा किया है, तो माहौल बिल्कुल खामोश है। सीएजी ने द्वारका एक्सप्रेस प्रोजेक्ट में लागत में अविश्वसनीय वृद्धि के कारण 6000 करोड़ रुपए अधिक खर्च होने और आयुष्मान योजना में एक ही मोबाइल नंबर पर एक करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान होने का खुलासा किया है।
अयोध्या विकास परियोजना में ठेकेदारों को करोड़ों रुपए का अनुचित भुगतान होने, भारत माता परियोजना में ठेका देने में गड़बड़ी किए जाने, गलत डिजाइन के कारण हिंदुस्तान एरॉनेटिक्स लिमिटेड को 159 करोड़ रुपए का नुकसान होने आदि के विवरण दिए हैं। लेकिन एक साथ इतने सारे मामलों के सामने आने के बावजूद ये गड़बडिय़ां मुद्दा नहीं बनी हैं। इसका निहितार्थ साफ है। मुद्दा भ्रष्टाचार नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार का नैरेटिव बनता है, जिसे निहित स्वार्थी मीडिया अपने राजनीतिक रुझान और हितों के मुताबिक गढ़ता है। यह बात 1970 के दशक के बिहार आंदोलन और कथित बोफोर्स घोटाले से बने सियासी माहौल के बारे में भी कही जा सकती है। आज हाल यह है कि हालिया खुलासों को अगर छोड़ दें, तब भी सिर्फ हिंडनबर्ग की रिपोर्ट से ऐसा नैरेटिव बन सकता था, जिससे वर्तमान केंद्र सरकार के लिए सफाई दे पाना कठिन होता। मगर आज मेनस्ट्रीम मीडिया की सहानुभूति सरकार के साथ है, तो ऐसे तमाम मामले आम जन के दिमाग में दर्ज होने से रह गए हैं। नतीजतन, मौजूदा सरकार की ‘ईमादार’ छवि लगभग पहले की तरह कायम है।