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तारीख पर तारीख का सिलसिला हो बंद

12,08,2021,Hamari Choupal

{अनूप भटनागर}

देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमे लंबित होने और इनके समाधान के उपायों पर चर्चा अक्सर होती है, लेकिन देखा जाए तो इसका नतीजा कुछ नहीं निकलता। लंबित मामलों की संख्या में विशेष अंतर नहीं पड़ता क्योंकि इनके निस्तारण की रफ्तार तेज नहीं है। इसकी मुख्य वजहों में तारीख पर तारीख लगना भी है।

सरकार का तर्क है कि विभिन्न अदालतों में भिन्न प्रकार के मुकदमों के निस्तारण के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं और किशोरियों के प्रति यौन हिंसा या बलात्कार जैसे संगीन अपराधों से संबंधित मामलों के निस्तारण की समय सीमा कानून में निर्धारित है।

दरअसल, न्यायपालिका में निचले स्तर से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमों की सुनवाई के लिए सख्त समय सीमा निर्धारित करने और सुनवाई स्थगित करने के बारे एक ठोस नीति बनाने की जरूरत है। पिछले सप्ताह शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह की पीठ ने एक मामले में बहस करने वाले अधिवक्ता के दूसरे मामले में व्यस्त होने के आधार पर इस मुकदमे की सुनवाई स्थगित करने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने इस तरह का अनुरोध करने वाले वकील से कहा कि वह खुद बहस करे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पीठ ने अपील खारिज कर दी। पीठ ने कठोर शब्दों में कहा कि हम विवादों पर फैसला करके अपना कर्तव्य निभाने की शपथ के तहत हैं न कि इसे स्थगित करने के। न्यायाधीशों को अगले दिन के लिये आधी रात तक तमाम मामलों की फाइलें पढऩी होती हैं। मामलों को इस तरह से स्थगित नहीं किया जा सकता।

लेकिन अक्सर देखा गया है कि किसी न किसी पक्षकार की ओर से एक वकील सुनवाई स्थगित करने का अनुरोध कर देता है। नतीजा मुकदमे की सुनवाई नहीं होती है और यह लंबित ही रहता है।

वैसे मुकदमों की सुनवाई स्थगित होने में अदालत की रजिस्ट्री की भूमिका भी कम नहीं है। कई बार ऐसा होता है कि न्यायाधीश द्वारा मामले में नोटिस जारी करने का आदेश दिये जाने के बावजूद यह नोटिस संबंधित पक्षों को मुकदमे की सुनवाई से चंद दिन पहले ही मिलता है। इसकी वजह संचार क्रांति के बावजूद रजिस्ट्री द्वारा तत्परता से संबंधित पक्षों को न्यायालय का नोटिस नहीं भेजना भी है। न्यायालय के आदेश के चंद दिनों के भीतर ही नोटिस भेजने की बजाय इसे अंतिम क्षणों में भेजने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगाने की आवश्यकता है।

उच्चतम न्यायालय पहले भी कई अवसरों पर मुकदमों की सुनवाई स्थगित कराने के लिए वकीलों द्वारा पेश वजहों पर आपत्ति और नाराजगी व्यक्त कर चुका है। इसमें अधिकांश में यही कहा जाता है कि बहस करने वाले अधिवक्ता उपलब्ध नहीं हैं, या वह शहर से बाहर हैं या फिर किसी जरूरी मामले में व्यस्त हैं। कई मामलों में अदालत सुनवाई स्थगित करने का अनुरोध स्वीकार कर लेती है या फिर वकील की अनुपस्थिति के आधार पर निरस्त किए गए प्रकरण को फिर से बहाल करने की भी अनुमति दे देती है लेकिन प्रत्येक मामले में ऐसा नहीं होता है।

इसी तरह के एक मामले में न्यायालय ने सात फरवरी, 2019 को भी अपने आदेश में कहा था कि अधिवक्ता का शहर के बाहर होना सुनवाई स्थगित करने का आधार नहीं हो सकता है। हाल ही में सरकार ने राज्यसभा को अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों और प्रत्येक दस लाख की आबादी पर न्यायाधीशों के बारे में दिलचस्प जानकारी उपलब्ध कराई। स्थिति यह है कि आज भी अधीनस्थ अदालतों में करीब तीन करोड़ 94 लाख मुकदमे लंबित हैं। इस समय निचली अदालतों में एक लाख से ज्यादा मुकदमे तीस साल से भी ज्यादा समय से लंबित हैं। इनमें 37,423 मामले दीवानी के हैं जबकि शेष 64, 578 आपराधिक मामले हैं।

दरअसल, अधीनस्थ अदालतों में जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों का नहीं होना और स्वीकृत पदों की तुलना में लगभग 25 फीसदी न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के पद रिक्त होना इसकी बड़ी वजह है। सरकार ने जिला और अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई है। अधीनस्थ अदालतों में 2014 में न्यायाधीशों के पदों की स्वीकृत संख्या 19,518 थी जो 2020 में बढ़कर 24,225 हो गयी है। लेकिन लंबित मुकदमों की संख्या की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए इसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इसके अलावा, मुकदमों की सुनवाई किसी न किसी आधार पर स्थगित कराने की प्रवृत्ति भी लंबित मुकदमों की संख्या कम नहीं होने में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। न्यायपालिका की सख्ती से इस प्रवृत्ति पर अंकुश पाया जा सकता है।
हकीकत यह भी है कि देश में 2020 में प्रति दस लाख की आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या 21.03 थी जबकि 2018 में दस लाख लोगों पर 19.78 न्यायाधीश और 2019 में यह बढ़कर 20.39 हो गयी। लेकिन क्या यह अनुपात तर्कसंगत और व्यावहारिक है। शायद नहीं। प्रत्येक दस लाख की आबादी के लिए अगर 21.03 न्यायाधीश होंगे तो निश्चित ही मुकदमों का निपटारा तेजी से नहीं होगा। न्यायाधीश अगर पूरी गंभीरता से मुकदमों के निस्तारण को गति प्रदान करने का प्रयास करें तो इसमें किसी न किसी आधार पर सुनवाई स्थगित कराने और तारीख पर तारीख का सिलसिला अपनी भूमिका निभाने लगता है।

प्रत्येक दस लाख की जनसंख्या पर न्यायाधीश-आबादी के अनुपात का निर्धारण करने के लिये प्राधिकारी 2011 की जनगणना को आधार बनाते हैं लेकिन धरातल पर यह अनुपात कहीं नजर नहीं आता है। केन्द्र और राज्य सरकारों को अधीनस्थ अदालतों में आबादी के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या में और वृद्धि करने के साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि मुकदमों की सुनवाई के मामले में तारीख पर तारीख का सिलसिला बंद हो।

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