16,09,2021,Hamari Choupal
मुंबई में दुराचार और अमानवीय क्रूरता के चलते एक युवती की मौत ने एक बार फिर अपराधियों में कानून का भय न होना दर्शाया है। यह भी कि हमारा कानून व पुलिस बेटियों को सुरक्षा कवच देने में नाकाम रहे हैं। वर्ष 2012 में दिल्ली की निर्भया के साथ जैसी क्रूरता की गई थी, वही राक्षसी व्यवहार मुंबई की निर्भया के साथ भी हुआ है। निस्संदेह यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि घर से निकलने वाली बेटियां अमानवीय क्रूरता की शिकार हो रही हैं। अपराधियों में यह धारणा लगातार बनी हुई है कि वे अपराध करने के बाद भी बच जायेंगे। हमें इस सवाल पर गंभीरता से सोचना होगा कि अपराधियों में कानून का खौफ क्यों नहीं है। हमारे समाज में ऐसी सोच क्यों पनप रही है जो महिलाओं के प्रति नफरत-क्रूरता को दर्शाती है। उसके साथ बेजान वस्तु जैसा व्यवहार क्यों किया जाता है जबकि पुरुष मां, बहन व बेटी के बिना अधूरा है। क्या कहीं अपराधी की परवरिश में खोट है या हमारा वातावरण इतना विषाक्त हो चला है कि वह लगातार ऐसे अपराधियों को पैदा कर रहा है। हमें तमाम ऐसे सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यही वजह है कि महिलाओं के प्रति क्रूरता करने वालों के साथ तालिबानी न्याय करने की बात उठने लगी है। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिण भारत में एक बलात्कार की घटना और क्रूरता के बाद पुलिस पर अपराधियों के साथ बंदूक से न्याय करने का दबाव बना था। बाद में जब बलात्कारी पुलिस मुठभेड़ में मारे गये थे तो महिलाओं ने पुलिस का अभिनंदन किया था। यह भाव दर्शाता है कि आम धारणा बन रही है कि न्यायिक प्रक्रिया से संगीन अपराधियों को समय रहते समुचित दंड नहीं मिल पाता। देश ने देखा था कि निर्भया कांड के दोषी सजा होने के बाद भी कानूनी दांव-पेचों का सहारा लेकर पुलिस-प्रशासन व न्याय व्यवस्था को छकाते नजर आए। इस घटनाक्रम ने शीघ्र न्याय की आस में बैठे लोगों को व्यथित किया था।
हाल के दिनों में मुंबई और पुणे में दुराचार व सामूहिक बलात्कार के कई मामले प्रकाश में आये। कमोबेश देश में भी ऐसी तमाम घटनाएं सामने आती रहती हैं जो दर्शाती हैं कि पथभ्रष्ट लोगों में स्त्री अस्मिता व गरिमा के लिये कोई जगह नहीं है, जिसके चलते यौन अपराध और फिर हत्या का सिलसिला जारी है। अपराधी समाज का अंग होने के बावजूद महिला-बच्चियों व उसके परिजनों के दर्द की कतई परवाह नहीं करते। वर्ष 2012 में निर्भया कांड ने देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। पूरे देश में व्यापक आक्रोश सामने आया था। उसके बाद यौन हिंसा से जुड़े कानूनों को सख्त बनाया गया था। दोषियों को कठोरतम सजा से दंडित भी किया गया था। लेकिन लगता है कि दिल्ली की निर्भया का बलिदान व्यर्थ चला गया। आज भी पीडि़त महिला व परिजनों को न्याय पाने के लिये यातनादायक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। वहीं यौन अपराधों का आंकड़ा चौंकाने वाले स्तर तक बढ़ा है। यौन हिंसा के बाद तब तक मामला सुर्खियों में रहता है जब राजनीतिक दल राजनीति करते रहते हैं और मीडिया में मामला गर्म रहता है। फिर यौन पीडि़ता का शेष जीवन सामाजिक लांछनों और हिकारत की त्रासदी के बीच गुजरता है। उ.प्र. में हाथरस से लेकर उन्नाव तक यौन हिंसा के मामले में ऐसा हुआ। यहां तक कि यौन हिंसा के आरोप मंत्रियों व विधायकों तक पर लगे। पिछले दिनों शिव सेना के एक मंत्री पर गंभीर आरोप लगे, आरोप लगाने वाली महिला की आत्महत्या के बाद मंत्री का इस्तीफा तो हुआ पर, पीडि़ता को न्याय मिला? दरअसल, सत्ताधीश भी कोई गंभीर पहल नहीं करते जो पीडि़ताओं का दर्द बांट सके और जांच व न्याय प्रक्रिया में तेजी लाकर नजीर पेश कर सकें। तभी आपराधिक तत्वों को खेलने का मौका मिलता है। मुंबई कांड में एक गिरफ्तारी हुई है, एसआईटी का गठन हुआ है और राजनीतिक दबाव के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामला चलाने की बात की जा रही है, लेकिन क्या अमानवीयता का शिकार हुई महिला को न्याय मिल सकेगा?