08.08.2021,Hamari चौपाल
{अरुण नैथानी}
ओलंपिक में वेल्टरवेट महिला मुक्केबाजी में देश के लिये कांस्य पदक जीतने वाली असम की लवलीना बोरगोहाईं को पदक की खुशी तो है लेकिन बड़ी खुशी इस बात की है कि ओलंपिक में उनके खेल के चर्चा में आने के बाद उनके घर के लिये नई सड़क बनी है। वह सड़क देखने को टोक्यो में भी उत्सुक नजर आई। दरअसल, पूर्वोत्तर की खबरों को राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा जगह नहीं मिल पाती, वैसे ही लवलीना बोरगोहाईं को भी अब तक ज्यादा सुर्खियां नहीं मिली। अब कांस्य पदक मिलने के बाद उनकी खूब चर्चा हो रही है। वह मुक्केबाजी में असम से आने वाली पहली महिला खिलाड़ी है। उनके ओलंपिक में प्रदर्शन को लेकर पूरे असम में भारी उत्साह नजर आया। लोग गली-चौराहों में उसके मैच को मोबाइलों पर देखते रहे। उसकी जीत की उम्मीदों को लेकर असम में इतना उत्साह था कि लवलीना के समर्थन में कुछ दिनों पहले असम के मुख्यमंत्री व विपक्षी दलों के विधायकों ने बाकायदा एक साइकिल रैली निकाली।
दरअसल, जब बैडमिंटन में पीवी सिंधु कांस्य पदक के लिये संघर्ष कर रही थी, उससे पहले तीस जुलाई को ही लवलीना का कांस्य पदक फाइनल हो गया था, उसे आगे सेमीफाइनल में रजत और स्वर्ण के लिये रिंग में उतरना था। लेकिन उम्मीदों और आकांक्षाओं से इतर महत्वपूर्ण यह भी होता कि खिलाड़ी की तैयारी कितनी है, दांव-पेच कितने सशक्त हैं और सामने कितना मजबूत व अनुभवी प्रतियोगी है। विडंबना यह रही कि लवलीना का सेमीफाइनल में जिस वेल्टरवेट महिला खिलाड़ी तुर्की की बुसेनाज सुर्मेनेली से मुकाबला था, वह अनुभवी और दुनिया की नंबर एक खिलाड़ी थी, जिसने पहले ही राउंड में लवलीना को हराकर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर मुकाबला जीत लिया। हर खिलाड़ी की अपनी विशेषता और सीमाएं होती हैं। लवलीना को मलाल रहा कि मैं बेहतर खेल सकती थी। मैंने इस बार खूब मेहनत की थी। हर बार मुझे कांस्य से ही संतोष करना पड़ता है, मेरी नजर सोने के पदक पर थी।
निस्संदेह हमें किसी खिलाड़ी को सोने व चांदी का तमगा ही दिखायी देता है, उसकी तपस्या और हालात पर हमारी नजर नहीं जाती। किसी खेल की तैयारी एक तपस्या जैसी होती है और बेहद अनुशासित व तपस्वी जैसा जीवन जीना पड़ता है। असम के गोलाघाट जनपद में दो अक्तूबर, 1997 में टिकेन बोरगोहाईं व मामोनी के घर जन्मी लवलीना का संघर्ष अन्य निम्न मध्य वर्गीय खिलाडिय़ों की तरह ही रहा। अभावों की तपिश ने उन्हें संवारा ही है। छोटा-मोटा व्यवसाय करने वाले पिता को बेटी के सपनों को पूरा करने के लिये आर्थिक चुनौतियों से दो-चार होना पड़ा। उनकी दो बहनें पहले से किक बॉक्सिंग करती थीं। उनके नेशनल चैंपियन बनने पर लवलीना ने भी शुरुआती दौर में किक बॉक्सिंग की। लेकिन लवलीना कुछ अलग करना चाहती थी। बताते हैं कि पिता एक बार कुछ खाने का सामान अखबार में लपेटकर लाये तो उस अखबार में महान बॉक्सर मोहम्मद अली का फोटो था, जिनके बारे में पिता ने बेटी को विस्तार से बताया। बताते हैं कि उसके बाद लवलीना ने बॉक्सर बनने का संकल्प लिया। स्कूल स्तर पर जब खेल प्रतिभाओं की तलाश के लिये स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया अभ्यास मैच करवाये तो कोच की नजर उन पर पड़ी। यहीं से लवलीना की मुक्केबाजी की शुरुआत हुई। लवलीना का मुक्केबाजी के प्रति जुनून इतना जबरदस्त था कि अगले कुछ सालों में वह एशियन बॉक्सिंग चैंपियनशिप में ब्रांज मैडल ले आई। उनके करिअर को रवानगी तब मिली जब वर्ष 2018 में उन्हें राष्ट्रमंडलीय खेलों के लिये चुना गया। इस प्रतियोगिता में तो उन्हें कोई पदक नहीं मिला लेकिन आगे के लक्ष्यों के लिये अनुभव हासिल हुए। अंतर्राष्ट्रीय खिलाडिय़ों से खेल के तकनीकी गुर व मानसिक ताकत बढ़ाने के उपाय सीखे। कालांतर वर्ष 2018 व 2019 में विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक अपने वर्ग में जीते। इस तरह लवलीना ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 69 किलोग्राम वेल्टरवेट वर्ग में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी। लेकिन इस विशिष्ट वर्ग में खेल की तैयारी हेतु उन्होंने कई परेशानियों का सामना भी किया।
बहरहाल, इतना तय है कि इस बार टोक्यो ओलंपिक में जिस तरह बेटियों ने बेहतर खेल का प्रदर्शन करके खूब सुर्खियां बटोरी, उससे उस सोच पर भी करारी चोट लगेगी जो बेटे-बेटियों में फर्क करती थी। इन लड़कियों की सफलता, उन्हें मिलने वाला मान-सम्मान तथा आर्थिक लाभ देश की हजारों लड़कियों को खेलों में आने और मजबूत बनाने का अवसर देगा। खासकर दूर-दराज के इलाकों की लड़कियों को अपने आप को साबित करने का मौका मिलेगा।
बहरहाल, कोरोना संकट के बीच लवलीना का कांस्य पदक हासिल करना बड़ी उपलब्धि ही कही जायेगी। संक्रमण की चुनौती के चलते वह ठीक तरह से ओलंपिक के लिये तैयारी भी न कर पायी थी। काफी समय अपने कमरे में ही प्रशिक्षण लेना पड़ा क्योंकि उन्हें ट्रेनिंग देने वाले लोगों में कई कोरोना संक्रमण की जद में आ चुके थे। प्रशिक्षण में उन्होंने ऑनलाइन माध्यमों से भी अनुभव हासिल किया। इसी बीच उनकी मां की किडनी का ट्रांसप्लांट हुआ, तब वह मां के साथ थी, जिसके चलते उनका प्रशिक्षण कार्यक्रम बाधित हुआ। ऐसी तमाम मुश्किलों के बीच लवलीना ने ओलंपिक का सफर तय किया और भारत की झोली में कांस्य पदक डाल दिया। बहरहाल, टोक्यो ओलंपिक से उसका आत्मविश्वास बढ़ा है और वह अब विश्व चैंपियनशिप, राष्ट्रमंडलीय खेल व एशियन खेलों की तैयारी में जुटने की बात कर रही है। उम्मीद है कि वह अगले ओलंपिक में कांसे के पदक को सोने में तब्दील कर पायेगी।