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खेती आधारित कुटीर उद्योगों में समाधान

04,08,2021,Hamari Choupal

 

 

{सुरेश सेठ}

डेढ़ बरस तक महामारी की दो लहरें देश ने झेल लीं। अब पिछले दो माह से उद्घोषणा हो रही है कि कोरोना की दूसरी लहर से देश आजाद हो रहा है। महामारी के दिनों में लगाये गये पूर्ण और अपूर्ण प्रतिबंधों के कारण अर्थव्यवस्था हिल गयी है। सबसे अधिक धक्का कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगों को लगा है। इससे गुजर-बसर करने वाले करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये हैं। इस समय बेकारी का आलम यह है कि देश के ग्यारह राज्यों में बेकारी की दर राष्ट्रीय दर से तीन गुणा अधिक हो गयी है। जिन राज्यों में बेकारी की दर राष्ट्रीय औसत से कम है तो वह भी मनरेगा की कृपा से। अर्थात् न कार्य पाने वालों में मनरेगा की दिहाडिय़ां बंट गयी, इससे वहां बेकारी की दर राष्ट्रीय औसत से कम हो गयी। लेकिन यहां मनरेगा का बंटवारा अनुग्रह रूप में अधिक हुआ है। उसके साथ किसी उत्पादक कार्य योजना की प्रस्तुति नहीं हुई, इसलिए मनरेगा की सहायता से देश की विकास दर में वृद्धि नहीं होती देखी गयी। मनरेगा सूचियों में घर की औरतों के आंकड़ों की बहुलता है। मर्द श्रमिक तो अधिक दिहाड़ी की उम्मीद में गांव छोड़ शहरों की ओर निकल गये हैं।

जब पिछले डेढ़ बरस से कोरोना महामारी के साये देश पर मंडराये तो महानगरों के जनजीवन को पूर्ण और अपूर्ण बन्दी का अभिशाप मिला और जो श्रमशक्ति अपने पुश्तैनी धंधे खेतीबाड़ी को अलाभप्रद मानकर शहरों की ओर चली गयी थी, पूर्ण और अपूर्ण बन्दी के दुर्भाग्य के कारण उनमें से बड़ी तादाद को अपने गांवों की ओर वापस आना पड़ा। उधर इन नौजवानों में से एक बड़ी तादाद बेहतर जीवन प्राप्त करने के लिए विदेशों की ओर चली गयी थी। परन्तु कोरोना की महामारी का विश्वव्यापी प्रकोप हुआ था, इसलिए प्रवासी भारतीयों का एक बड़ा हिस्सा भी स्वदेश लौटने लगा। इनके पास अपने कृषक समाज में लौट जाने के सिवा कोई और चारा नहीं था। महानगरीय संस्कृति तो अपनी जड़ों के हिल जाने के कारण अब उन्हें कोई आसरा नहीं दे सकती थी। जो नौजवान और बेकार हो गयी श्रमशक्ति वापस अपने कृषक समाज में रोजी-रोटी का वसीला तलाशने गयी, उनकी संख्या करोड़ों में बतायी जा रही है।

कोरोना की पहली लहर तो पिछले साल के अंत तक दब गयी लेकिन ये लोग इस भय से वापस शहरों की ओर नहीं लौटे, क्योंकि कोरोना की दूसरी लहर के लौटने का भय जिन्दा था। वह हुआ भी। इस साल के दूसरे माह से कोरोना की नयी लहर ने अपना प्रकोप दिखाना शुरू कर दिया। यह लहर पहली लहर से भी अधिक संक्रामक, तेजी से फैलने वाली और रोगियों के लिए मृत्यु का पैगाम देने वाली थी। यह सही है कि जून माह तक यह लहर दबने लगी और जुलाई में सरकार ने इस लहर से छुटकारे का ऐलान कर अर्थव्यवस्था पर लगे प्रतिबंधों को हटाना शुरू कर दिया, लेकिन इससे आर्थिक जीवन में स्पन्दन उस तेजी से नहीं लौटा।
कारण कई रहे। सबसे पहला तो यह कि सरकार सामाजिक अन्तर रखने की पैरवी करते हुए, कोरोना की तीसरी लहर के लौट आने की चेतावनी दे रही थी। इसलिए श्रमशक्ति जो पलायन करके गांवों में आ ठिठकी थी, वहीं रहकर अपने लिए किसी वैकल्पिक जीवन की तलाश करने लगी।

इस बीच भारत सरकार ने निवेश निर्णयों को प्रोत्साहित करने के लिए दो आर्थिक बूस्टर दिये। पहला पिछले साल बीस लाख करोड़ रुपये का और दूसरा अभी इस बरस, कोरोना की दूसरी लहर के लौटने की सूचनाओं के साथ 6.3 लाख करोड़ रुपये का। तब कई नये नारे उछले। ‘स्टार्ट अप इंडियाÓ से लेकर ‘आत्मनिर्भर भारतÓ तक क्योंकि ये दोनों बूस्टर अर्थतन्त्र में नये उत्साह के वाहक नहीं बने, केवल सहज मौद्रिक नीति के साथ साख प्रेरक रहे, इसलिए इनका उत्साहजनक प्रभाव नये निवेश पर उस तरह नहीं पड़ा, जैसी उम्मीद की जा रही थी।

कारण निवेश को प्रेरणा देने के लिए केवल साख की उपलब्धता नहीं, बढ़ती हुई मांग का ग्राफ भी होना चाहिए। लेकिन मांग तो तभी बढ़ेगी, जब आमजन और उपभोक्ता के हाथ में अधिक कमाई आये। यहां देश का आलम यह है िक अधिक कमाई तो क्या, कोरोना संकट का मुकाबला करने के लिए आम लोगों की बचत भी अपंग हो गयी। इस काल में बैंकों में बचतकर्ताओं की जमा तेजी के साथ कम हुई है।

सबसे अधिक मार वेतनभोगी क्षेत्र को पड़ी है। महामारी में अर्थतंत्र के मृतप्राय हो जाने के कारण वेतनभोगी क्षेत्र क्रमश: असमर्थ होता गया। कोरोना के कारण अतिरिक्त बेकारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई। उधर, देश का लघु, मध्यम और कुटीर उद्योग निष्प्राण होता गया क्योंकि इन असाधारण परिस्थितियों में उनके लिए बाजारों में मांग का बेतरह अभाव हो गया। आर्थिक बूस्टर निष्प्रभावी होने लगे, तब लोगों के हाथ में पैसा, वेतन और नौकरियां बढऩे के नये निवेश की मांग कैसे सामने आती।

ऐसी हालत में कृषक भारत ही अपनी ओर से एक उम्मीद देता नजर आता है। जो लोग शहरों से अपने गांवों में वापस चले गये हैं, वे वापस महानगरों की ओर जाने के स्थान पर अपनी धरती से जीने और टिकने का आसरा मांगने लगे। लेकिन पिछले बरसों में कृषि की हालत बहुत अच्छी नहीं रही। अभी तक भी देश की आबादी का आधे से अधिक प्रतिशत गांवों में रोजी-रोटी की तलाश कर रहा है। उधर, कृषि क्षेत्र का योगदान कम होते-होते पच्चीस प्रतिशत सकल घरेलू आय का हिस्सा रह गया। अब जब गांवों की ओर लौटने का नारा बुलन्द होता जा रहा है तो इसे गम्भीर और व्यावहारिक स्तर पर लाना होगा।

कृषि क्षेत्र ने कोरोना के इन विकट दिनों में भी भारत जैसे अभावग्रस्त और पिछड़े हुए देश को भुखमरी से बचाया है। अभी नये आंकड़े बता रहे हैं कि कोरोना की दोनों लहरों में खेतीबाड़ी ही रही, जिसका योगदान घनात्मक था। शेष सभी उत्पाद, उद्योग और व्यावसायिक क्षेत्रों का योगदान शून्य से नीचे चला गया।जो अतिरिक्त आबादी शहरों से पलायन करने अब गांवों में अपने जीने और रोजी-रोटी का नया अर्थ तलाशना चाहती है, उन्हें भी कृषि आधारित नये कुटीर और लघु उद्योगों में ही आरक्षण देना होगा।

भूकंप प्रताडि़त जापान की आबादी अगर अभी तक बची हुई है तो इसीलिए कि उन्होंने अपने देश में छोटे-छोटे लघु और कुटीर उद्योगों का जाल बिछा लिया। आस्ट्रेलिया और कनाडा का कृषि आधारित क्षेत्र भी इसीलिए बच पाया क्योंकि उन्होंने कृषि आधारित उद्योगों से सहारा ले लिया।

भारतीय संस्कृति की पूरी पहचान कृषक संस्कृति के विकास के बिना अधूरी है। क्यों न अंधाधुंध नगरीकरण के स्थान पर हम देश में कृषि के आधुनिकीकरण की ओर लौटें। धरती मां में सब लोगों को अपनी बाहों में समेट लेने का अजब सामर्थ्य है, इसे न भूलें।

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