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दीदी को मिलेगी भाजपा विरोधियों की ममता!

02 08..2021,Hamari Choupal

 

{राजकुमार सिंह}

हालांकि केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार का दूसरा कार्यकाल अभी आधे से भी अधिक शेष है, लेकिन 2024 में अगले लोकसभा चुनाव के लिए गोटियां बिछाने का खेल शुरू हो गया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी की हालिया दिल्ली यात्रा भी इसी खेल का हिस्सा रही। बेशक ममता वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी विरोधी राजनीतिक गोलबंदी के प्रमुख चेहरों में शामिल थीं, पर तब वह ध्रुवीकरण राष्ट्रीय स्तर पर कोई स्पष्ट आकार ही नहीं ले पाया। उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे देश के बड़े राज्यों में जहां गैर-भाजपाई गठबंधन या महागठबंधन बन पाये, वहां भी मतदाताओं का विश्वास तो उन्हें नहीं ही मिल पाया। इसके बावजूद अगले लोकसभा चुनाव से लगभग पौने तीन साल पहले ही भाजपा विरोधी ध्रुवीकरण की कवायद शुरू हो गयी है तो उसके भी अपने कारण हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में मिला जनादेश मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में उजागर पहले कार्यकाल के घोटालों तथा नीतिगत शिथिलता के साथ ही नरेंद्र मोदी के आक्रामक चुनाव अभियान का परिणाम तो था ही, उत्तर प्रदेश और बिहार की उसमें बड़ी भूमिका रही। जिस उत्तर प्रदेश में भाजपा तीसरे नंबर पर खिसक चुकी थी, वहां से उसे लोकसभा की रिकॉर्ड 71 सीटें मिलीं तो वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी उसने 312 सीटें जीत कर सत्ता में ऐसी धमाकेदार वापसी की कि दो दशक से सत्ता पर काबिज रहीं सपा-बसपा के पैरों तले से जमीन खिसक गयी।

बेशक उसके बाद भी भाजपा ने कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव जीते, लेकिन कुछ राज्यों में उसे सत्ता गंवानी भी पड़ी। उत्तर भारत के ही तीन प्रमुख राज्यों : राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। फिर शिवसेना से रिश्तों में आये खिंचाव के चलते महाराष्ट्र की सत्ता भी उसके हाथ से फिसल गयी। स्पष्ट बहुमत पाने में तो भाजपा अपने एकमात्र दक्षिण भारतीय गढ़ कर्नाटक में भी चूक गयी थी और जल्दबाजी में सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को बेआबरू होकर दो दिनों में ही इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में उसकी भरपाई कांग्रेस-जनता दल सेक्यूलर सरकार में सेंधमारी कर बहुमत के जुगाड़ से फिर येदियुरप्पा की ताजपोशी से की गयी, जिन्होंने इसी सप्ताह दो साल का कार्यकाल पूरा कर बढ़ती उम्र के मद्देनजर मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया। दलबदल के जरिये सत्ता का ऐसा ही जुगाड़ भाजपा ने बाद में मध्य प्रदेश में भी कर लिया। बिहार में अवश्य उसने नीतिश कुमार का कद कम करते हुए अपनी सीटें बढ़ा कर राजग की सत्ता बरकरार रखी, लेकिन पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव उसके लिए बड़ा झटका साबित हुए। व्यावहारिक राजनीतिक विश्लेषण की दृष्टि से पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी भाजपा अपना जनाधार बढ़ाने में सफल रही, लेकिन ममता को सत्ता से बेदखल करने के उसके मंसूबे पूरे नहीं हुए। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की सक्रिय भूमिका ने पश्चिम बंगाल चुनाव को भाजपा ही नहीं, मानो केंद्र सरकार के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया था, लेकिन ममता की खुद की हार के बावजूद तृणमूल कांग्रेस पिछली बार से भी ज्यादा सीटें जीतने में सफल रही। निश्चित रूप से यह ममता की राजनीतिक ही नहीं, नैतिक जीत भी रही, पर क्या इसे भाजपा की हार के रूप में देखा जाना चाहिए? नैतिक दृष्टि से इस सवाल का जवाब हां में हो सकता है, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से नहीं। आखिरकार विधानसभा में भाजपा तीन सीटों से 77 सीटों पर पहुंच गयी तो इसे हार कैसे कहा जा सकता है? वैसे भाजपा की ममता विरोधी आक्रामकता को रणनीतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखना ज्यादा सही होगा। माहौल बनाया गया कि ममता सत्ता से विदा हो रही हैं। इस माहौल का भी परिणाम रहा कि कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन का वहां सफाया ही हो गया, क्योंकि खासकर चुनावी राजनीति में कई बार धारणा वास्तविकता से भी ज्यादा प्रभावी साबित होती है। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव परिणामों ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र से बनी इस धारणा को और पुष्ट कर दिया है कि मोदी-शाह की भाजपा भी अपराजेय नहीं है। तब फिर क्यों न केंद्रीय सत्ता के संघर्ष के लिए अपनी बिसात अभी से बिछायी जाये!

दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने एक बार राजनीति को असीमित संभावनाओं का खेल कहा था। वह गलत नहीं थे। दरअसल वह स्वयं इस सच का एक प्रमाण थे। आपातकाल के विरोध में जिस कांग्रेस को अलविदा कह कर वह गैर-कांग्रेसी राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक प्रमुख चेहरा बने, उसी कांग्रेस के समर्थन से उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना अंतत: साकार हुआ। अब आप इसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का करिश्मा कहिए या विडंबना कि तब चंद्रशेखर के नेतृत्व वाले जनता दल धड़े के पास लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के लगभग 10 प्रतिशत ही सांसद थे। बेशक राजनीति के असीमित संभावनाओं वाले खेल के वह अकेले ऐसे भाग्यशाली खिलाड़ी नहीं रहे। उनके बाद 1996 से 98 के बीच भारत ने जो दो प्रधानमंत्री देखे, वे भी इसी खेल की देन थे। देश के मतदाताओं ने कांग्रेस के विरुद्ध जनादेश दिया था और भाजपा लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने केंद्र में अपनी पहली सरकार भी बनायी, पर तब तक राजनीतिक अस्पृश्यता इतनी प्रबल थी कि तमाम कोशिशों के बावजूद सदन में बहुमत का जुगाड़ नहीं हो पाया और विश्वास मत प्रस्ताव पर मतदान से पहले उन्होंने इस्तीफा देना बेहतर समझा। उसके बाद ही जनता दल की अगुवाई में कांग्रेस समर्थित संयुक्त मोर्चा सरकारों के प्रयोग हुए। पहले प्रयोग में कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे एच. डी. देवगौड़ा की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी हुई, जो 11 महीने ही चल पायी। उसके बाद नंबर आया राजनीति के भद्रपुरुष इंद्र कुमार गुजराल का, पर उनकी सरकार भी 11 महीनों से आगे नहीं चल पायी, क्योंकि कांग्रेस को लगने लगा था कि दो साल में तीन सरकारों का पतन होने से स्थिर सरकार का उसका नारा एक बार फिर चल निकलेगा। मतदाताओं ने स्थिर सरकार के पक्ष में तो मतदान किया, पर उनकी पहली पसंद बनी भाजपा।
अब जबकि मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार वर्ष 2024 में केंद्र में अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करेगी तो उनके विरोधियों को लगता है कि सत्ता विरोधी भावना इतनी मुखर होगी कि उसे आसानी से भुनाया जा सके। सिर्फ इसलिए नहीं कि अतीत में लोकप्रिय प्रधानमंत्री भी दूसरे कार्यकाल की फिसलन का शिकार होते रहे हैं, बल्कि जानलेवा वैश्विक महामारी कोरोना से निपटने की मोदी सरकार की रणनीति पर चौतरफा सवाल खड़े हुए हैं। कोरोना संकट के चलते बढ़ती बेरोजगारी और बेलगाम महंगाई ने सरकार की साख पर सवालिया निशान लगाये हैं तो आठ महीने से दिल्ली की दहलीज पर जारी किसान आंदोलन भी अनुत्तरित सवाल बना ही हुआ है। इस बीच फ्रांस में राफेल सौदे की जांच तथा पेगासस जासूसी सरीखे खुलासों को भी विपक्ष अपने तरकश में चुनाव जिताऊ तीरों की तरह देख रहा है। जनमत का संकेत अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मिल पायेगा, लेकिन तय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव भाजपा के पक्ष में पिछले दो लोकसभा चुनावों की तरह एकतरफा तो नहीं होने वाले। आगामी लोकसभा चुनाव निश्चय ही भाजपा विरोधी दलों-नेताओं के लिए एक बड़ा अवसर होंगे, पर तभी जब वे एकजुट होकर विश्वसनीय विकल्प पेश कर पायें। जमीनी वास्तविकता की बात करें तो विपक्ष में कांग्रेस ही एकमात्र राष्ट्रीय दल है, जिसकी हैसियत भी मात्र 53 लोकसभा सीटों से स्वयं स्पष्ट है, पर मोदी का विकल्प यानी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाएं क्षेत्रीय नेताओं के मन में भी कम जोर नहीं मार रहीं। भले ही राकांपा प्रमुख शरद पवार और ममता बनर्जी प्रमुख दावेदार दिखते हैं, पर कांग्रेस राहुल की दावेदारी छोड़ते हुए सत्ता से वनवास का वरण क्यों करेगी? कौन जानता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम फिर से अखिलेश के मन में, उनके पिता की तरह, दिल्ली की सत्ता का मोह जगाने वाले आ जायें? आखिर उत्तर प्रदेश में पश्चिम बंगाल से लगभग दोगुना लोकसभा सीटें हैं। दीदी की दबंगई को अन्य गैर-भाजपा दल भी आसानी से स्वीकार नहीं करने वाले। जाहिर है, मोदी से पहले इन दावेदारों का आपस में ही मुकाबला होगा। यह भी भाजपा और मोदी की बड़ी ताकत है।

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