23.06.2021,Hamari Choupal
चैंलेन्ज और प्रैक्टिकल एक समान होनी चाहिए। लेकिन चैलेन्ज और प्रैक्टिकल में महान अन्तर दिखाई देता है। एैसा होने पर हम अनेको को वंचित करने के निमित बन जायेंगे और पुण्य आत्मा के बजाय बोझ वाली आत्मा बन जायेगे। संकल्प द्वारा भी पाप होता है और संकल्प के पाप का भी प्रत्यक्ष फल होता है।
संकल्प में स्वय की कमजोरी या कोई भी विकार पाप के खाते में जमा होता है। किसी अन्य के प्रति व्यर्थ बोल भी पाप के खाते में जमा होता है अर्थात एैसे कर्म द्वारा किसी के प्रति शुभ भावना के बजाया कोई अन्य भावना हो तो भी यह पाप के खाते मे जमा होता है क्योकि यह भी अप्रत्यक्ष रूप में दुख देना होगा।
इसलिए नियम और मर्यादाओं को सदैव सामने रखे। पुण्य और पाप दोनो का ज्ञान बुद्धि में रखें और चेक करें कि कौन सा खाता जमा हुआ है। अपने आप को चलाओ मत अर्थात धोखा मत दो कि यह तो होता ही है, यह बात तो सभी में है। भावना श्रेष्ठ रखने पर पुण्य आत्मा बन जायेंगे।
स्वयं का परिवर्तन ही अन्य का परिवर्तन है। स्वप्न में भी जरा भी दुख का अनुभव ना हो। तन बीमार हो जाय, धन नीचे हो जाय लेकिन दुख की लहर अन्दर नही जानी चाहिए। लहर आती है तो जम्प करके पार कर जाये। अगर यह तरीका आता है तो नहाने का सुख लेंगे अन्यथा डूब जायेंगे। लहर का ऐसे क्राॅस करे जैसे कोई खेल, खेल रहे हो।
श्रेष्ठ सम्बन्ध और सम्पत्ति के अधिकारी बनने के लिए संकल्प से भी छोडी हुई अर्थात त्याग की हुई बात को फिर से धारण नही करना होता है। बेकार और बिगडी हुई वस्तु समझकर त्याग करने की प्रतिज्ञा करना और फिर से इसे धारण कर लेना, विष का सेवन कर लेने के समान है। इसलिए संकल्प द्वारा त्याग हुई बेकार वस्तुओं को संकल्प में भी धारण नही करना चाहिए।
ऐसी धारणा हो कि दृढ संकल्प द्वारा कुछ भी परिस्थितियाॅ आ जाये लेकिन धारण न छुटे। सभी बन्धन समाप्त होकर जीवन मुक्त बनने का अनुभव करना है कि जैसे हम एक खेल, खेल रहे है। इसके बाद यह परीक्षा नही बल्कि खेल का अनुभव होगा। खेल में दुख का अनुभव नही होता है बल्कि मनोरंजन का अनुभव होता है। इसलिए परिस्थिति को खेल समझने से जीवन मुक्ति की स्थिति का अनुभव करेंगे।
निर्बन्धन आत्मा ही ऊॅची स्थिति का अनुभव कर सकेगी। बन्धन वाला तो नीचे बधा ही रहता है। लेकिन निर्बन्धन वाला ऊपर उठता रहता है। निर्बन्धन बन कर चलना अर्थात ट्रस्टी बन कर चलना। यदि कोई भी मेरा पन है तब ंिपंजरे में बन्द होना है। इसलिए निर्बन्धन अर्थात कही भी बन्धन ना हो। मन का बन्धन भी ना हो। क्या करू, कैसे करू, चाहता तो हॅॅू लेकिन होता नही है, यह सब मन का बन्धन है। चाहता हूॅ परन्तु कर नही पता हूॅ, यह हमारा कमजोर होना हुआ।
इतने श्रेष्ठ कार्य के आगे स्वंय के पुरूषार्थ में हलचल या स्वंय में कमजोरी का अनुभव ना हो। शान्त के साथ-साथ अतिशान्त और अति रमणी स्थिति का अनुभव हो। ऐसे सत्य अभ्यास से अनेक अयर्थाथ अभ्यास स्वत ही प्रत्यक्ष हो जायेंगे।
अव्यक्त बाप दादा मुरली महावाक्य 05 दिसम्बर 1978